एक सपना, एक जीवन
- राकेश रोहित
आदम हव्वा के बच्चे
सीमाहीन धरती पर कैसे निर्बाध
भागते होंगे
पृथ्वी को पैरों में चिपकाये
कैसे आकाश की छतरी उठाये
ब्रह्मांड की सैर करता होगा उनका मन?
पृथ्वी को पैरों में चिपकाये
कैसे आकाश की छतरी उठाये
ब्रह्मांड की सैर करता होगा उनका मन?
वो फूल नहीं उनकी
किलकारियाँ हैं
जिनको हरियाली ने समेट रखा है अपने आँचल में
उनके लिखे खत
तितलियों की तरह हवा में उड़ रहे हैं!
वे जागते हैं तो
चिडियों के कलरव से भर जाता है आकाश
उषा का रंग लाल हो जाता है
हवा भी उनको इस नाजुकी से छूती है
कि सूर्य का ताप कम हो जाता है।
जिनको हरियाली ने समेट रखा है अपने आँचल में
उनके लिखे खत
तितलियों की तरह हवा में उड़ रहे हैं!
वे जागते हैं तो
चिडियों के कलरव से भर जाता है आकाश
उषा का रंग लाल हो जाता है
हवा भी उनको इस नाजुकी से छूती है
कि सूर्य का ताप कम हो जाता है।
सो जाते हैं वही
बच्चे तो
प्रकृति भी अंधेरे में डूबी
चुप सो जाती है।
प्रकृति भी अंधेरे में डूबी
चुप सो जाती है।
एक मन मेरा
रोज रात उनके साथ दौड़ता है
एक मन मेरा
रोज जैसे पिंजरे में जागता है!
क्या किसी ने शीशे का टूटना देखा है
क्या किसी ने शीशे के टूटने की आवाज सुनी है?
किरचों की संभाल का इतिहास
ही क्या सभ्यता का विकास है!
रोज रात उनके साथ दौड़ता है
एक मन मेरा
रोज जैसे पिंजरे में जागता है!
क्या किसी ने शीशे का टूटना देखा है
क्या किसी ने शीशे के टूटने की आवाज सुनी है?
किरचों की संभाल का इतिहास
ही क्या सभ्यता का विकास है!
हमारे हाथों में
लहू है
हमारे हाथों में कांच
हमारे अंदर एक टूटा हुआ दिन है
हमारे हाथों में एक अधूरा आज!
मैं जिंदगी से भाग कर सपने में जाता हूँ
मैं सपने की तलाश में जिंदगी में आता हूँ।
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो उस सपने को याद कर निरंतर रोता है
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो इससे बेखबर सोता है।
हमारे हाथों में कांच
हमारे अंदर एक टूटा हुआ दिन है
हमारे हाथों में एक अधूरा आज!
मैं जिंदगी से भाग कर सपने में जाता हूँ
मैं सपने की तलाश में जिंदगी में आता हूँ।
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो उस सपने को याद कर निरंतर रोता है
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो इससे बेखबर सोता है।
जिसने एक छतरी के
नीचे
इतने फूलों को समेट रखा है
मैं बार- बार उसके पास जाता हूँ
उसे मेरे सपने का पता है।
मैं लौट आता हूँ अपने निर्वासन से
आपके पास
आपकी आवाज भी सुनी थी मैंने
आपका भी उस सपने से कोई वास्ता है।
इतने फूलों को समेट रखा है
मैं बार- बार उसके पास जाता हूँ
उसे मेरे सपने का पता है।
मैं लौट आता हूँ अपने निर्वासन से
आपके पास
आपकी आवाज भी सुनी थी मैंने
आपका भी उस सपने से कोई वास्ता है।
चित्र / के. रवीन्द्र |
Adbhut jivan prakruti swapan ....
ReplyDeleteJivan ko air kya chahiye
बहुत ख़ूबसूरती से अहसासों को पिरोया है आपने..! बधाई....
ReplyDeleteहमारे अंदर एक टूटा हुआ दिन है हमारे हाथों में एक अधूरा आज! मैं जिंदगी से भाग कर सपने में जाता हूँ मैं सपने की तलाश में जिंदगी में आता हूँ।----मर्म स्पर्शी रचना ,सुन्दर बिम्ब ,बधाई .
ReplyDeleteऐसी भावपूर्ण कविता काफी समय बाद नज़र आई है । अच्छा है । ऐसी कविताओं की गहराई महसूस करने में समय तो लगता है । सुन्दर है ।
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण और गूढ़ अभिव्यक्ति! कितनी भी बार पढ़ूँ , कुछ समझने को बाक़ी रह जाता है
ReplyDeleteहाँ ,मेरा भी उस सपने से वास्ता है , हम सबका है , बधाई इस सुंदर कविता के लिए । आप गद्य भी बहुत प्रभावशाली लिखते हैं ।
ReplyDeleteकल लिखी हुई ग़ज़ल की दो पंक्तियाँ आपकी इस कविता नाम -
ReplyDeleteअभी तो क़ाफ़िला सहरा के पार आया है
कश्तियाँ खोलो अभी पूरा बहर बाक़ी है
मेरे हुनर की इसने बानगी ही देखी है
मुझपे मिटने को अभी पूरा शहर बाक़ी है
savedanshil shabdon me lipte ahsas
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सर!
ReplyDeleteसादर
बहुत बढ़िया चिंतनपरक रचना ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteआप लिखते रहिए।
--
आपकी रचना का लिंक हम चर्चा मंच में भी ले लेंगे।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (29-11-2014) को "अच्छे दिन कैसे होते हैं?" (चर्चा-1812) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जीवन जब ठहरने सा लगे
ReplyDeleteसमय पर ताले पड़ने लगे
तू कविता बन आ जाना
जब नब्ज़ थमने सी लगे।
राकेश जी एक नई कोशिश के लिए
धन्यवाद।
बहुत सुंदर प्रस्तुति...
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