कविता
कवि का झोला
- राकेश रोहित
हर फोटो में साथ रहा
कवि के कांधे पर टंगा वह
खादी का झोला।
कवि के झोले में क्या है!
बहुत कुछ है, अबूझ है
असमझा है
प्रकट से अलग
कुछ गैरजरूरी
कुछ खतो किताबत
कुछ मुचड़े कागज
कुछ अधूरी
अनलिखी कविताएँ!
कवि के झोले में जादू है।
दुनिया विस्मय से देखती है झोले को
विस्मय से कवि देखता है
दुनिया को
जो झोले से बाहर है।
एक दिन जब खूब बज रही थी तालियाँ
कविता पढ़ता हुआ कवि खामोश हो गया
उसे अचानक अपनी चार पंक्तियाँ याद आ रही थी
जो झोले में रखे किसी कागज पर लिखी थी
और जिसे उसने कभी नहीं सुनाया!
दुनिया को खबर नहीं है
जो कवि की कविता में नहीं है
वह कवि के झोले में है!
क्या तुम अपने झोले से बहुत प्यार करते हो कवि?
जब कभी आप पूछेंगे
आपको कवि का आत्मालाप सुनाई देगा!
कवि का झोला / राकेश रोहित |
बहुत सुंदर कविता बनी है।आपने एक सामान्य विषय को बखूबी के साथ कविता में अभिव्यक्त किया है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सामयिक सार्थक सृजन
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