Friday 31 December 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा
              हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं
                   (संदर्भ : भुवनेश्वर की कहानी 'भेड़िये')
                                                              - राकेश रोहित
(भाग- 11) (पूर्व से आगे)

भुवनेश्वर  की  भेड़िये  कहानी को वहां से समझा जाना  चाहिए जहां यह मनुष्य की नियति के समय को पकड़ने के क्रम में वैयक्तिक त्रासदी को मानवीय महात्रास में बदल देती है.  इफ्तखार के बहाने एक पीढ़ी या कहिये एक वर्ग के उस जीवन दर्शन को समझा जा सकता है जिससे वह अपनी नियति को उस समूह की नियति से अलग कर लेता है जो समान रूप से उसकी भी है. इस तरह वह एक अंतर्विभाजन रचता है और चीजों की प्राथमिकता उनकी उपयोगिता से तय करता है. यहीं से कुछ को कुछ से कमतर और कुछ को कुछ से बेहतर समझने की मानसिकता जन्म लेती है जिसके अधीन वह टिप्पणी करता है- पूरे बंजारों में उसका गड्डा अफसर था. यह एक असमानता का श्रेष्ठवादी दर्शन है जहां भेड़िये के खिलाफ लड़ाई को वह अपने बचे रहने की जद्दोजहद से जोड़ता है. तब उसे बैल उतने ही चाहिए जो गाड़ी दौड़ा ले जा सकेंनटनियां तभी तक जब तक वह गाड़ी पर बोझ न हों. यहीं कहीं वह उस प्रेम को नकारता है जिसे उसने एक क्षण बचा रखा था और बादी के बदले दूसरी  नटनियां को कूदने के लिये कहा था. यह एक किस्म की प्रतिहिंसा थी जो हिंसा को जन्म देती है. वह प्रेम को उसके सिरे से नकारने की चेष्टा करता है, "तुम खुद कूद पड़ोगी या मैं तुम्हें धकेल दूं." और नटनियां उसी तर्ज पर चांदी की नथ उतार कर बाहों से आंखें बंद किये कूद जाती है. दरअसल यह प्रेम का वह ठहरा हुआ खास क्षण है जो इस नष्ट होते समय में बचा है. इफ्तखार को शायद शंका होती है कि बादी को वह कूदने के लिये नहीं कह सकेगा या शायद बादी ही उस पर भरोसा किये हो कि वह उसे बचा लेगा. इस तरह प्रेम उसके अन्दर की कमजोरी बन जाता है जो उसके अपने होने की शर्त  के विरुद्ध जाता  है. वह इससे निजात पाने के लिये अपनी झिझक के ऊपर यह कहने का साहस करता है, "तुम खुद कूद पड़ोगी या ...." यह एक क्रूर किस्म का व्यक्तिवाद है. बादी इसका प्रत्युत्तर है. वह चांदी की नथ उतारकर उसके हाथों में दे देती है जैसे आभास दे रही हो कि वह इसी के लिये रुकी थी. इस तरह वह अपने अन्दर के प्रेम का अंत करती है और बाहों से आंखें बंद किये अपनी नियति को स्वीकृत करती है. वह इफ्तखार के पिता की तरह कोई निर्देश नहीं देती कि वह उसके मरने के बाद उसके जूते नहीं पहने यद्यपि वो नये हैं. बादी का यह कूद पड़ना रीतिकालीन प्रेम के उत्सर्ग की नैतिकता नहीं रचता है. बल्कि एक झटके से वह अपनी उस स्थिति का संकेत करती है जो उस वक्त उसकी है और जिस असमान नैतिकता ने प्रेम का अंत कर दिया है जैसे प्रेम था ही नहीं.

पर नियंता होने के दंभ ओढ़े इफ्तखार अपनी नियति को स्वीकार नहीं करतावह अपने को 'एलियनेटकरता है. धीरे-धीरे वह सबको अपने से काटता है और एक खोखला आश्वासन ओढ़े रहता है कि अगर जिन्दा रहा तो  मैं एक-एक  भेड़िया काट डालूंगा. यह उसका आत्मस्वीकार है कि सारा व्यापार मात्र उसके जिन्दा रहने के लिये है. इफ्तखार कूद पड़ता है कि उसकी जिंदगी थोड़ी है. वह अपने अस्तित्व को 'डाइल्यूटकर जिंदगी को एक यूनिट बनाता है. और मृत्यु को विवश अंगीकार करता है क्योंकि उसकी जिंदगी अपने बेटे की जिंदगी से 'श्रेष्ठनहीं है. वह अपने रचे दर्शन से अपनी स्थिति को परिभाषित करता है और पाता है. यही वह क्षण है जहां आप त्रास रचते भी हैं और उसमें शामिल भी होते हैं. धीरे-धीरे वह सारा अंतर मिट जाता है जो आपमें थाजो आपमें नहीं है. इफ्तखार के पिता में जीने का मोह था और बहाना भी. वह बुढ़ापे में बड़ा हंसोड़ हो गया था. वह अपने भाव की दुनिया रचता है - मारते-मरते मैं कह चलूंगा खारे-सा-खरा कोई निशानेबाज नहीं है. वह अपने जूते को लेकर कहता हैअगर मैं जिन्दा रहता तो दस साल और पहनता. इस तरह दस साल वह संबंध  और रहता जो खरे और उसके बाप के बीच था. लेकिन इफ्तखार के पिता ने खुद को न्यूनीकृत कर लिया.

(आगामी पोस्ट में महान कथाकार भुवनेश्वर की महत्वपूर्ण कहानी भेड़िये पर चर्चा जारी) 

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Thursday 23 December 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा 

               हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं

                                                                     - राकेश रोहित
(भाग-10) (पूर्व से आगे)


      सुरभि पांडेय की डगलस का जमाना नहीं, इधर तुम हो प्रभाकर कहानी में प्रेम की वापसी की सूचना है. पर अभिव्यक्ति का आवरण इतना जटिल है कि प्रेम की नन्हीं जान कहीं दुबकी सी लगती है. शायद सहज प्रेम को 'जस्टीफाई' करने के लिए हिंदी कहानी को और कालयात्राएँ तय  करनी हैं. लेखिका ने शीर्षक में जिस बेबाकी से प्रभाकर को याद दिलाना चाहा है कि यह जेम्स डगलस का जमाना नहीं है वह बेबाकी राधिका में अनुपस्थित है. बल्कि इसके विरुद्ध राधिका अपने अस्तित्व को स्वीकार किये जाने के समर्पण में बेचैन है. नवीन सागर की मोर एक लोककथायी जादू से रची गयी है. कहानी यह चिंता करती है कि किस तरह "हुल्ले जो गरीब है, कमजोर है, विचलित हुए बिना पिटता चला जाता है और आख़िरी सांस तक अपनी जिद और सनक को छोड़ता नहीं है. कितना मुश्किल होता है एक ऐसा आदमी जबकि बस्तियां आबादियों से भरी पड़ी हैं." कहानी उस त्रासदी को पकड़ती है कि एक मोर के प्रति कई मिथक रच रहे गांव में वह हुल्ले बिना कोई हलचल पैदा किये मरकर अंततः मोर में बदल जाता है और लोग हुल्ले को नहीं जानते.  बसंत कुमा की सौगात में जीवन की शांत झील में धीरे-धीरे किसी हलचल की तरह आतंक  फैलता है और तरलता बची रहती है. यह जीवन का सहज विश्वास है. मदनमोहन की कोई झूठ नहीं में माहौल को अपनी गिरफ्त में लेती और धीरे-धीरे उस पर हावी होती साम्प्रदायिकता और सम्प्रदायवादी सोच है. कमल चोपड़ा की शर्म में एक बच्चा दुनिया के बह रहे सत्त को बचाता है. हरिश्चंद्र अग्रवाल की परीक्षा में आस्था-अनास्था के बीच झूलती कुछ चालाक मानसिकता है जो ऐसे द्वंद्व को 'एफोर्ड' कर सकती है. ज्ञान प्रकाश विवेक की एक स्त्री का एकांत राग अवास्तविक के सम्मोहन की फैंटेसी है.

      महेश कटारे की द ग्रेट इंडियन सर्कस में राजनीतिक जोकरबाजी का बढ़िया करतब है. वैसे कहानी में सांस्कृतिक ढंग से मुस्करानेवाली विमलाजी और जालसाजी के पवित्र शब्द राव जी के मुँह में रखने वाले कामरेड विक्रम जी, जो कहते हैं, "ईश्वर ! यदि तू है तो मुझे क्षमा मत करना क्योंकि मैं जानता हूँ कि क्या कर रहा हूँ" के चरित्रों का विकास इसे भारतीय राजनीतिक दिवालियेपन की महत्वपूर्ण कथा रचना बना सकता था. फिलहाल यह एक व्यंग्य तो है ही. सुमति अय्यर, विरल राग में लिखती हैं,  "लड़की सपनों की मौत बर्दाश्त नहीं कर पाती पर औरत सपनों की मौत से निस्संग रहती है" तो यह अन्दाज अच्छा लगता है. पर फिर यशी के सपनों का सीमित कैनवस में फैल जाना और यथार्थ के साथ उसकी असंगतता को अस्वीकारती रुमानियत भरी जिद से लगता है मानो "उस हल्के आलोक में शांत समुद्र के तट पर चट्टानों के पास रेत में एक सिम्फनी शांत हो गयी."  हरि भटनागर की मुन्ने की उमर में जीवन की गतिक लयबद्धता की अनुपस्थिति का अनुभव है. मध्यवर्गीय जीवनचर्या की सीमित इच्छाओं भरी दिनचर्या में भयावह सुख के विलासी आतंक की तरह दाखिल होती शंकर की कहानी प्रस्थान एक अद्भुत रचना है. इसे अपनी स्थिति में लौटने के स्वीकार के रूप में लिया जाना चाहिए. तेजिन्दर, तोकीदादा में  सामाजिक व्यवस्था के रेशों की पहचान करते हैं जो धार्मिक उन्माद में अचानक गड्ड-मड्ड हो जाता है और हम इस कायम दुनिया में कुछ अस्पष्ट सा जीवन लिये रह जाते हैं. चित्रा मुदगल की बेईमान में कहानी अपना पक्ष कहने से रह जाती है. ममता कालिया की एक पति की मौत संवेदनशील रचना है. लेखिका ने इसका सलीके से विकास किया है कि किस तरह सिया संस्कारों के प्रति विद्रोह बचाते हुए अपनी इयत्ता में कायम रहती है. और फिर जैसे अपने अंदर वह अपने मृत पति नमन को 'डिसकवर' करती है और अपनी संवेदना से अपने दुःख को पाती है. 

     
       कहानी और कहानी के इस जमाव के बाद इस अंतराल की कहानी चुनना उस अनुभव को नकारना था जो आज की कहानी में आम होता है. और न केवल 'कंसेप्शन' वरन् 'ट्रीटमेंट' में भी जो कहानी अपना अलग प्रभाव रखती है वह है बल्लभ सिद्धार्थ की अश्लील (हंस, अगस्त 1991), प्रकाशकांत  की अमर घर चल (हंस, सितंबर 1991) और रामधारी सिंह दिवाकर की द्वारपूजा  (वर्तमान साहित्य, जुलाई 1991). इन कहानियों को पढते हुए मैंने जानने  की कोशिश की -- इनमें वह क्या है जो इन्हें औरों से अलग करता है. पर इससे पहले मैं भुवनेश्वर की पुनर्प्रकाशित कहानी भेड़िये (हंस, मई 1991) की चर्चा जरूरी समझता हूँ क्योंकि इससे शायद कहानी के उस रूप को पाने की कोशिश बची रह सकती है आज की हिंदी कहानी जिसे बहुत 'मिस' करती है.  

(आगामी पोस्ट में महान कथाकार भुवनेश्वर की महत्वपूर्ण कहानी  भेड़िये पर चर्चा) 
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Saturday 18 December 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा
                              हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं
                                                                            
- राकेश रोहित 
(भाग-9) (पूर्व से आगे)

            काशीनाथ सिंह की एक लुप्त होती हुई नस्ल एक खास समूह के विलुप्तीकरण की सूचना है जो समूह सामाजिकता को अपनी जीवन शैली में जोड़कर देखता है. यह कहानी उस बरदेखुआ  नस्ल के असंगत होते जाने को हास्य से पकड़ती हुई परिवेश के पर्यावरणीय संकट की ओर संकेत करती है. इसे एक बेहद संभावनाशील रचना के रूप में लिया जाना चाहिए. गंगा प्रसाद विमल की नुक्कड़ नाटक नुक्कड़ का सच है. कहानी अपनी तन्मयता में आस्था के स्पर्श तक पहुंचना चाहती है. गोविन्द मिश्र की आकरामाला  में हमारे संबंधों की संरचना में शहर धीरे से दाखिल होता है और धीरे-धीरे अपनी क्षुद्र उंचाइयां समेत स्थापित हो जाता है. वहां एक निर्जनता है जो अजनबीयत से पनपती है और त्रिशंकु की तरह बीच वरिमा में झूलने के अहसास से जीवन जल कहीं सूखता जाता है.

       रवींद्र वर्मा की तस्वीरों का सच दृश्य माध्यम के सच की तस्वीर है. रमेश उपाध्याय की कहानी फासी-फंतासी फासी तक ठीक है, फंतासी तक आते-आते यह एक उत्तेजित यथार्थ रचने लगती है. मधुकर सिंह की नेताजी एक राजनीतिक परिदृश्य को सामने रखते हुए भी अधूरी सी  लगती है. एक बात जो सामने आती है वह यह कि राजनीतिज्ञ इतने भोले हैं कि कवितायेँ लिखते हैं. सतीश जमाली की हड़ताल ट्रकों की हड़ताल के बहाने ठहरे जीवन की कथा है. नीलकांत की उसका गणेश धैर्य से लिखी हुई अव्यवस्थित कहानी है. टनटनिया के चरित्र को अराजक मिथ में बदलते हुए लेखक वाचक  के वर्ग चरित्र को सुरक्षित रखता है. जवाहर सिंह की विषकन्या में एक असफल जीवन शैली का खोखलापन है. परेश की सिल्वर एक कूल टीचर में मृत्यु की ठंडी सुरंग से बाहर निकल आयी एक जीवित धरती है जिस तक कहानी अपने पूरे ठहराव से पहुँचती है. सुरेश सेठ की पिरामिड से सड़क तक तात्कालिकता से उत्प्रेरित स्फुट विचार है जो "अब कोई और सड़क बनानी होगी" के रहस्यवादी आदर्श तक पहुँचता है. राकेश वत्स की कामधेनु पढ़ते हुए मुझे रमेश उपाध्याय की कामधेनु (चतुर्दिक,1980) याद आयी. रमेश उपाध्याय ने कामधेनु का प्रयोग समाजवाद की स्थापना के लिए किया है तो राकेश वत्स ने साम्यवाद का छद्म उकेरने के लिए, दोनों जगह गाय भोली जनता है जिसका इस्तेमाल सिद्धांतवादी  विचारधारा को ज़माने-उखाड़ने में करते रहे हैं. महेश्वर की नगर जो देखन मैं चला क्रम से लिए गये बेहतर 'स्नैप शाट्स' हैं जो व्यंग्य की तरह यथार्थ के हिस्सों तक पहुँचते हैं और उसे समूचे यथार्थ में बदल देते हैं. शैलेन्द्र सागर, गुलइची में महिला चरित्र रचने की योजना लेकर बढ़ते हैं और हद से हद 'बिहारी यथार्थ' तक पहुँच पाते हैं. दीपक शर्मा की खमीर से रमेश उपाध्याय की सफाईयां (सारिका, कथा पीढ़ी विशेषांक) याद आनी चाहिए. एक ऐसा प्रेम जो प्रतिप्रेम को जन्म देता है कि उसी से उपजता है.

(आगामी पोस्ट में वर्तमान साहित्य महाविशेषांक की कहानियों की चर्चा जारी)
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Friday 17 December 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा 
              हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं 
                                                                               राकेश रोहित 
(भाग -8) (पूर्व से आगे)

          नयी कहानी के शुरुआती दिनों में उषा प्रियंवदा की एक कहानी वापसी (कहानी, 1960) आयी थी जिसे नामवर सिंह ने खास तौर पर रेखांकित किया था. इसमें रिटायर्ड होकर घर लौटे गजाधर बाबू अपने ही घर- परिवार में अपने को अनफिट पाकर फिर अनजानी जगह में अपरिचितों के बीच लौटते हैं. यह कहानी पढते हुए मुझे लगता रहा कि यह परिवारवाद के मध्यवर्गीय समंजन को तोड़ती हुई सामंती सुखबोध की स्थापना (तलाश) शायद अनजाने में ही करती है. वरिष्ठ लेखक शेखर जोशी की डांगरीवाले पढ़कर लगा कि आज इतने वर्ष बाद जैसे अचानक यह कहानी उसके समांतर स्वरूप उसके सही अन्दाज में पाती है. और वह इस तरह कि यह कहानी व्यक्ति के अकेलेपन, पीढ़ियों की प्रतिहिंसा और इन सबके बीच मध्यवर्गीय समंजन के 'स्पेस' को बारीक ढंग से पकड़ती है. पर जाहिर है इसे कोई मोड़ बिंदु (turning point) नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि उषाजी इस संरचना को काफी पहले पकड़ रही थीं कि उनमें व्यक्ति के अकेलेपन और व्यक्तित्व को बचाने का यथास्थितिवादी संकट ज्यादा साफ है. वैसे यहाँ एक बात स्पष्ट होनी चाहिए कि गजाधर बाबू के व्यक्तित्व को बचाने का यह संकट यथास्थितिवादी क्यों है?  जबकि ऐसा है कि गजाधर बाबू जीवन के सौंदर्यबोध और स्वाद की तलाश की छटपटाहट लेकर कहानी में प्रवेश करते हैं. इसी सौंदर्यबोध से वे अपने  पुराने जीवन को  खोई  निधि सा याद करते हैं जिसमें पटरी पर रेल की पहियों की खटखट उनके लिए मधुर संगीत की तरह थी. और जब वे अपने परिवार में  लौटते हैं तो पाते हैं कि वहां पूंजीवादी उदारता से रचे समंजन में  बेस्वाद जिंदगी का यथास्थैतिक स्वीकार है और परंपरा बोध के नाम पर अशुद्ध स्तुति करती पत्नी है. गजाधर बाबू अपनी चेतना में इसे नकारते हैं और 'जो है, जैसा है' में शामिल हो जाने से इंकार करते हैं. पर क्या यह चेतना भारतीय परिवार की सामंती प्रक्रिया से संचालित होती है जिसके तहत आरंभ में वे थके हारे घर लौटने पर पत्नी के रसोई के द्वार पर निकल आने के आग्रही हैं और बाद में घी और चीनी के डिब्बों में रमी पत्नी का भारी सा शरीर उन्हें बेडौल और कुरूप लगता है. और क्या वे इसलिए अपने को मिसफिट पाते हैं कि वे घर के केंद्र में बने रहने के 'पुरुषोचित' आग्रह से मुक्त नहीं हो पा रहे और इसी मंशा से अपने लिए एक आर्थिक सत्ता की तलाश में पूंजीवादी विस्तार को स्वीकारते हैं और मिल में नौकरी करने को स्वीकार कर पूंजीवादी उदारता में व्यक्ति को बचाए रखने के भ्रम को कायम करते हैं. और शायद यही  वह बिंदु हो सकता है जिससे इस कहानी को समझने का सूत्र हासिल हो सकता है. वह है कि एक परिवार जो पूंजीवादी उदारता के आग्रहों से भरा अपने मूल और प्राचीन स्वरूप, जो काफी हद तक सामंती था, से मुक्त हो चुका है. उसमें कथा नायक अपनी ईमानदार चेतना, भले ही वह उसकी सामंती सांस्कारिकता  से संचालित होती है,  के साथ प्रवेश करता है और अस्वीकार दिये गये सौंदर्यबोध   की तलाश में छटपटाता है. पर वह अपनी चिंता के साथ अकेला है और परिवार के पूंजीवादी ढांचे को नकार कर अंततः फिर उसी पूंजीवादी विस्तार में शामिल होता है तथा इस तरह यथास्थिति के विरुद्ध यथास्थिति को स्वीकार करता है. यह उसकी नियति है या नहीं,  कहानी इसे नहीं छूती पर वह इस परिणति तक पहुंचती है और इस तरह वह परिवार के सामंती ढांचे के चरमराने तथा इसके  विरुद्ध पूंजीवाद के व्यापक प्रसार की सूचना देती है. यह नेहरु के मिश्रित अर्थव्यवस्था के समाजवादी स्वप्न से लोगों के मोहभंग का काल था जब केरल में 1957 में देश की  पहली साम्यवादी सरकार की  स्थापना होती  है.

      दूधनाथ सिंह की लौटना में वर्जनाओं की  दुनिया में मुक्ति का उछाह भरता बच्चा है जो गोसाईं को अपनी चेतना के अनुभव में लौटाता है. अलका सरावगी की कहानी आपकी हँसी वाचक 'मैं'  की संवेदनशीलता को 'ग्लोरीफाई' करती है. कहानी के अंत में जब नत्थू बाबू के दूर के रिश्तेदार हँसते हुए बताते हैं, "दरअसल आपकी ही तरह का पागल है वह", तो इसमें लेखिका की कोशिश 'मैं' की संवेदना को विशिष्ट करने की हैं. यह कहानी उस 'पागल'  जिसकी सुन्दर बीवी किसी 'यार' के साथ भाग गयी पर आपकी हँसी के विरुद्ध तो है पर इस बहाने  क्या यह एक व्यक्ति के 'डाइल्यूशन' से उत्पन्न विचलन को एक शिथिल संवेदना से ढंक नहीं देती है?  और अगर यह कहानी आलोचकों को पसंद आ रही है तो केवल इसलिए कि वे इस संवेदना की चमक अपने अंदर महसूसना चाहते हैं. एक व्यक्ति द्वारा खुद को तुच्छ समझे जाने तथा निर्मम किस्म की आज्ञाकारिता के टूटन को कहानी किस तरह स्वीकार कर लेती है, इस पर उनकी नजर नहीं है. गिरिराज किशोर की आंद्रे की प्रेमिका पढ़ते हुए मुझे लगा कि वे जो जीवन में साहित्य तलाशेंगे जीवन को कितना ठहरा हुआ पायेंगे. मंजुल भगत की मलबा सामूहिक जिजीविषा की एक अच्छी कहानी है जो नारी चेतना को नारी मुक्ति की तरह नहीं उठाती है बल्कि उसे एक वर्ग-अस्तित्व में बदल देती है और अजवायन सनी रोटियां मीठी होकर गले में घूम-घूमकर फैलने लगती हैं.

 (आगामी पोस्ट में वर्तमान साहित्य महाविशेषांक की कहानियों की चर्चा जारी)


                                                                      .....जारी       

Friday 3 December 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा 
     हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं 
                                                                        - राकेश रोहित 
(भाग -7) (पूर्व से आगे)

        विष्णु नागर की साधु का रास्ता असफल यात्राओं की कथा है, "जहां एक का अर्थ दूसरे को मंजूर नहीं और अर्थ बतानेवाले को भी अपने अर्थ पर शंका रहती है." इंद्रमणि उपाध्याय की मौत दर मौत में भौतिकता में उलझी संवेदना का मरणराग बजता है. हृदयेश की मनु तटस्थ व्यंग्य के माध्यम से बदलते समाज और जड़ चेतना की शिनाख्त करती है. कहानी याद रहती है और कमलेश्वर की गर्मियों के दिन की याद दिलाती है. भीष्म साहनी की मान्यताएं एक ठहरे हुए समाज में वैचारिकता की आम सहमति की किस्म की परख करती है और इस तरह स्थापित कर पाती है कि किस तरह हमारे  निर्णयों की विचारधारा के केंद्र में मनुष्य की जगह कुछ तय सुविधाएं है. मार्कण्डेय, हलयोग में ग्रामीण सामंतवाद की कुछ दंड प्रक्रियाएं लेकर उपस्थित हुए हैं. 'ए से एस और जेड से जेब्रा', आजकल संजीव कुछ एस तरह की संयोगात्मकता का भी उपयोग अपनी अभिव्यक्ति में करने लगे हैं और आप चौंकने के लिए स्वतन्त्र है. वैसे मांद कहानी में संजीव जो कर पाए हैं वह यह कि एक माहौल में पल रहे एक परिवार पर हावी होते वर्ग विभेद के दवाबों को ग्रामीण अंदाज से पकड़ते हैं. कि वह केवल मांद है जहां सुरक्षा और सुविधा का दमघोंटू अहसास है और अपनी जमात मांद से बाहर है. स्वयं प्रकाश, हत्या कहानी के दो प्रसंगों में संवेदनाओं को उनकी मौलिकता में बचने की फ़िक्र से जुड़े है.

        शशांक की कहानी बालूभीत पवन का खंभा एक तनाव की तरह फैलती है और धीरे से उसमें उठती है व्यतीत-मोह की सुगंध. "माया सुनो तो देखो. वह लड़की तुम्हारे बचपन की माया नहीं लगती?" बीत हुए को फिर से पा लेने की मोह भरी जिद, शायद यही है जो इस बिखराव भरे जीवन का गोंद है. मोहन थपलियाल की कहानी एक वक्त की रोटी बिना किसी बड़बोलेपन के हमारे सामने डिबली के एक वक्त के जीवन की कथा कहती है. पानी से लेकर रोटी तक के जुगाड़ में डिबली  की पहाड़ सी मशक्कत हमारी चौवालीस साला आजादी के खिलाफ सबसे सशक्त व्यंग्य है. राजेन्द्र दानी की उनका जीवन में उनके दुःख को मिथ में बदल देने की कोशिश मुझे अजीब लगती है. हां, उनके जीवन से हमारे अंदर उठता भय कुछ समझ में आता है. निजी सेना (हंस, सितंबर, 1987) के बाद जयनंदन ने लगातार इतनी कहानियां लिखी कि पाठक कहानी का नाम भले याद न रख पाये जयनंदन का नाम नहीं भूलता. तो ऐसे में यह सूचना के तौर पर लिया जाना चाहिए कि जयनंदन की कहानी छुट्टा सांड आयी है. मेढक शैक्षणिक स्मृतियों का रोचक स्मरण है, पर कहानी के रूप में इसका प्रभाव कमजोर है ऐसा गंभीर सिंह पालनी जी भी मानेंगे. महेश दर्पण की दरारें में एक घर की दीवारों पर पड़ती दरारों से जीवन में उठती दरारें हैं.

        अमरकांत की श्वान गाथा पढकर श्रीकांत की कुत्ते (सारिका, जुलाई, 1982) कहानी याद आती है. ये कहानियां एक दूसरे का विकास हैं जिसे दो भिन्न पीढ़ी के लेखक अपने समय की जिम्मेवारी से उठाते हैं. श्रीकांत की कुत्ते में कुत्ता के खोने से खड़ा हुआ सरकारी तमाशा है तो अमरकांत की श्वान गाथा में कुत्ता काटने को लेकर क्रांतियां-प्रतिक्रन्तियां तक हो जाती हैं. कुल मिलाकर यह हमारे समय पर गैर मुद्दे की बातों का आच्छादित होना है.
   
 (आगामी पोस्ट में वर्तमान साहित्य महाविशेषांक की कहानियों की चर्चा जारी)
                                                                      .....जारी