Sunday 1 November 2015

प्रेम के बारे में नितांत व्यक्तिगत इच्छाओं की एक कविता - राकेश रोहित

कविता
प्रेम के बारे में नितांत व्यक्तिगत इच्छाओं की एक कविता
- राकेश रोहित

मैं नहीं करूंगा प्रेम वैसे
जैसे कोई बच्चा जाता है स्कूल पहली बार
किताब और पाटी लेकर
और इंतजार करता है
कि उसका नाम पुकारा जायेगा
और नया सबक सीखने को उत्सुक
वह दुहरायेगा पुरानी बारहखड़ियां!

मैं
जैसे गर्भ से बाहर आते ही हवा की तलाश में
रोता है बच्चा और चलने लगती हैं सांसें
वैसे ही सूखती हुई अपने अंतर की नदी को
भरने तुम्हारी आँखों में अटके जल से
तुम्हारे नेत्रों के विस्तार में
खड़ा रहूंगा एक अनिवार्य दृश्य की तरह
सुनने तुम्हारी इच्छा का वह अस्फुट स्वर
और ठिठकी हुई धरती के गालों को चुंबनों से भर दूँगा
तुम्हारी हाँ पर!

मैं पूछने नहीं जाऊंगा
प्रेम का रहस्य उनसे
जिन्होंने सुनते हैं
जान लिया है प्रेम को
अपनी तलहथी की तरह
पर अनिद्रा में करते हैं विलाप
कि कठिन है इस जीवन में प्रेम
जिनके सपनों में रोज आती हैं
संशय में भटकती मछलियां
और देखते हैं निश्शब्द वे
नदी में छीजता हुआ जल!

अध्याय ऐसे लिखा जाएगा हमारे प्रेम का
जैसे सद्यस्नात तुम्हारी देह
दमकती है ऊषा सी लाल
और इस सृष्टि में पहली बार
देखता हूँ हरी चूनर पर चमकते सोने को
जैसे सूरज की ऊष्मा से भरी इस धरती को
किसी नवोढ़ा की तरह
पहली बार देखता हूँ
गाते हुए कोई मंगल-गीत!

जब सहेज रहे होंगे हम प्रेम में
सांस- सांस जीवन को
हमारे पास बचाने को नहीं होगा
कोई पत्र प्रेम भरा
सहेजने को नहीं होगी
अपने अनुभव की कोई महागाथा
बस एक दिन हम
नई दुनिया का स्वप्न देखती आँखों में
थोड़ा सा प्रेम रख जायेंगे
उन नींद- निमग्न आँखों को
हौले से थपकी देकर
उस हाथ से
जिसमें तुम्हारे चुंबन का स्पर्श अब भी ताजा है।

 प्रेम के बारे में... / राकेश रोहित 

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