Saturday 1 August 2015

मुझे ले चल पार - राकेश रोहित

कविता
मुझे ले चल पार
- राकेश रोहित

नाव देखते ही लगता है
जैसे हम डूब गए होते अगर यह नाव नहीं होती
डगमग डोलती है नाव
और संग डोलता है मन
स्मृतियों की एक नदी
में धप्प गिरता है माटी का एक चक्खान
धीरे- धीरे भीगता है सूखी आँखों का कोर!

नाव में शायद हमारे पूर्वजों की स्मृतियां हैं
जब किसी अंधेरी रात वे किनारों की तलाश में थे
और गरज रहा था घन घनघोर
और तभी कोई डर समा गया था
उनके गुणसूत्रों में
और जिसे लेकर पैदा हुई संततियां
जिसे लेकर पैदा हुए हम!
और अब भी नाव को तब देखिए
जब कोई नहीं देख रहा हो
तो ऐसा लगता है कोई बुला रहा है हमें
पूछ रहा है कानों में
जाना है उस पार?

वे सारे मांझी गीत
जिनमें प्रीतम की पुकार है-
जाना है उस पार!
हमें इतना विकल क्यों कर देते हैं
जैसे हाथ से छूट रहा हो प्रेम
कि लहरों के बीच कठिन है जीवन
कि जैसे उस पार कोई सदियों से इंतजार कर रहा है
और जल में डोल रही है
चंचल मन सी नाव!

पहली बार नाव बनाकर
मेरे ही किसी पूर्वज ने देखा होगा स्वप्न
इस अथाह अंधेरे और अतल जल के पार जाने का
और पहली बार उसने गाया होगा गीत
इस निर्जनता के विरुद्ध
किसी खोये प्यार को पा लेने का!
क्या वही पुकार गूंज रही है मेरे अंदर?
क्या वही मन मेरे अंदर कांप रहा है
मेरे थिर शरीर में?

हवा जो छू रही है मुझे
पहले भी इसने छूआ था किसी को
यहीं कहीं इस नीरव में
उसका डर, उसकी सिसकियां
उसका आर्तनाद
सब कुछ कोई भरता है मेरे कानों में!
इस विशाल विश्व के अंधेरे में
बस प्रेम के किसी हारे मन की पुकार गूंज रही है
जैसे डोलता है दीपक अकेला
नाव की छत पर टंगा
जैसे ब्रह्मांड के सूनेपन में
अकेली धरती घूम रही है।
जब सब चुप हैं
मुझको सुना रहा है कोई
अपने मन का छुपा हुआ डर
छूटती है बरसों की दबी रूलाई
जब पुकारता हूँ
मुझे ले चल पार!

मुझे ले चल पार!

मुझे ले चल पार / राकेश रोहित 

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