Saturday 6 August 2011

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित


कथाचर्चा
                    हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं
                                             - राकेश रोहित
(भाग- 19) (पूर्व से आगे)
         
आने वाले समय के तनाव को शिद्दत से महसूसने वाले रचनाकार के रूप में विनोद अनुपम का नाम लिया जाना चाहिए. उनकी पहली कहानी स्वप्न (सारिका) में आयी थी जो राजनीति के सीमान्त की ओर इशारा करती, आज की स्थितियों पर बहुत सटीक रचना है. उनकी नयी कहानी शापित यक्ष, वर्तमान साहित्य पुरस्कार अंक की श्रेष्ठ कहानी है. यह अपनी शीर्षक संकल्पना में परंपरा के मिथ का बहुत सजग इस्तेमाल करती है और समूची कहानी उसका निर्वहन करती है. इसके अलावा वर्तमान साहित्य में निषेध (नारायण सिंह), माफ करो वासुदेव (वही), मदार के फूल (अनन्त कुमार सिंह), बांस का किला (नर्मदेश्वर), सबसे बड़ी छलांग (रामस्वरूप अणखी), अपूर्व भोज (रमा सिंह), प्रतिहिंसा (राणा प्रताप), संशय की एक रात (कृष्ण मोहन झा) आदि कहानियाँ अपने महत्व में पठनीय हैं. सिम्मी हर्षिता  की कहानी इस तरह की बातें (वर्त्तमान साहित्य, अक्टूबर 1991) में जिस व्यवस्था से मुक्ति की कोशिश है उसके विरुद्ध किसी चेतना का विकास कहानी नहीं करती है. प्रेम रंजन अनिमेष की ऐसी जिद क्या (वर्त्तमान साहित्य, अक्टूबर 1991) में आत्मीयता की जो प्रतीक्षा है वह हिंदी में बूढ़ी काकी (प्रेमचंद) जैसी कहानियों के सिवा दुर्लभ है.

मध्यवर्गीय आत्म-रति को स्थापित करती सूरज प्रकाश की कहानी उर्फ चंदरकला  जैसी कहानी का दो पत्रिकाओं  वर्तमान  साहित्य (नवंबर 1991) तथा संबोधन-91 में प्रकाशन संपादकीय नैतिकता पर प्रश्न लगाता है. सूरज प्रकाश जी की ही लिखी टिप्पणी "अश्लीलता के बहाने कुछ नोट्स" (हंस, जून 1991) के संदर्भ  में ही सवाल उठता है  कि अगर उनका आग्रह चंदरकला को  'इरोटिक'  न माने जाने का है तो क्या यह उनके ही शब्दों में एक वर्ग को पशु करार किये जाने की कोशिश नहीं है.  मैनेजर पांडेय  ने अपने आलेख "यह कछुआ धर्म अभी और कब तक" (हंस, फरवरी 1991) में लिखा है - "व्यवस्था के शील पर चोट करने के लिए अश्लीलता हथौड़े की तरह काम करती है." अगर  सूरज प्रकाश की कहानी व्यवस्था के शील पर चोट नहीं करती तो फिर यह अश्लील क्यों है?  रघुनंदन त्रिवेदी की खोई हुई एक चीज (संबोधन-91) अपनी तलाश में शामिल करती है तो यह एक बड़ी बात है. रूप सिंह चंदेल की चेहरे (संबोधन-91) में शैक्षणिक संस्थानों का वह चेहरा सामने आता है जहां एक सहज व्यक्ति अपने को इस्तेमाल किये जाने और अंत में मोहभंग को स्वीकारने के लिए विवश है.

इस रंग बदलती दुनिया में  / राकेश रोहित 

(आगामी पोस्ट में उस वर्ष की अन्य कहानियों पर चर्चा)
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