Tuesday 23 November 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा 
          हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं 
                                                                        - राकेश रोहित 
(भाग -6) (पूर्व से आगे)

      तरसेम गुजराल की कहानी दरबदर में युद्ध का समय है. असगर वजाहत की मुश्किल काम में आतंक का आतंक है. विनोद मिश्र की जुमराती मियां सांप्रदायिकता पर लिखी गयी उल्लेखनीय कहानियों में एक है. यह सांप्रदायिकता को एक आसन्न युद्ध की तरह प्रस्तुत नहीं करती है बल्कि उसकी प्रक्रिया को समझती है और जुमराती मियां उसका प्रतिषेध फोटू बेचने के बदले लड़के को उधारी में किताब देकर करते हैं. यह प्रतीक रूप से शिक्षा के प्रसार की सूचना है. कहानी में वह मार्मिक स्थल है जब जुमराती मियां अपने गांव में बच्चों को असुरक्षित समझ उन्हें नाना- नानी के गांव भेजते हैं और रात को बच्चे वहां से लौट आते हैं क्योंकि वहां नाना-नानी का घर बंद था, वे कहीं चले गये थे. और यह जो बचा हुआ है, कि वहां काम करने वाले एक आदमी ने उन्हें मटर की छीमियां खिलाई और ईख चूसने को दी. कहानी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह जुमराती मियां को मसीहानुमा या पीड़ित व्यक्ति नहीं बनाती है बल्कि जुमराती मियां बिना किसी विद्रोही भाव के अपने सहज अंदाज में पीर की तस्वीर को आगाह करते हैं कि, "तुम अपनी सोच में तब्दीली कर लो नहीं तो मेरे बाद मेरे बच्चे तुम्हें इस दीवार से हटाने के बारे में सोचने लगेंगे." यह कहानी लंबे समय तक याद रखी जानी चाहिए. सबीना के चालीस चोर   (नासिरा शर्मा) भी सांप्रदायिकता के सवाल से जूझती है यह लोककथायी मिथ का एक फौरी इस्तेमाल करती हुई ऐसे समय को स्वीकारती है जहां उम्मीद का मासूम लफ्ज केवल नयी नस्ल के लिये है.
      
      सृंजय की कहानी अतीत से आगे में इतिहास-बोध, इतिहास का विरोध है, वह भी जन- परंपरा के नाम पर. इधर सृंजय की एक और कहानी आयी है - मूंछ (हंस, अगस्त, 1991). किसी ने कहा, कामरेड का कोट विचार प्रेरित कहानी है, कि इसमें कथा नहीं है, तो सृंजय ने  दो कथा लिखी है जिसे आप बांच सकते हैं. सृंजय कहानी प्रकाशन के पूर्व यह सूचना प्रसारित कर कि इसे अलां और फलां लोग पढ़ चुके हैं एक किस्म का आतंक रचते हैं. पर अतीत से आगे में सृंजय व्यवस्था के जिन उपकरणों के विरुद्ध आम आदमी को खड़ा करना चाहते हैं वह जनता अतीत से पीछे उर्फ मूंछ में जमींदार बनाम बनिये की लड़ाई (यह आज के दो व्यावसायिक घरानों की लड़ाई से किस तरह अलग है यह सवाल निर्दोष कथावाचक से पूछना बेमानी होगा!) में कहां छूट जाती है यह समझ पाना कठिन है. बहरहाल मूंछ के विरुद्ध मूंछ  को स्थापित कर यह कहानी एक नये अर्थ- आधारित सामंती मानसिकता की सतर्क पुनर्स्थापना करती है ऐसा कहना क्या बिल्कुल गलत होगा?
      
      दिनेश पालीवाल की बची हुई जिंदगी में काफी बिखराव है. पूरी कहानी में वाचक अपनी पत्नी और बेटी की लाश देखने के दुःख तक नहीं पहुँच पाता है. कहीं-कहीं उसकी सरसामी हालत की  झलक अवश्य मिलती है. द्विजेन्द्र नाथ मिश्र निर्गुण की कालचक्र बदलते सामाजिक मूल्यों और उनके दवाबों की कथा है. विष्णु प्रभाकर की औरत इस विश्वास को सामने लाती है कि,  " नफरत अपने आप में कुछ नहीं है, वह प्रेम का विलोम है." श्रीलाल शुक्ल की वे बच जाएंगे मगर... में राजनीतिक व्यामोह में घिरे लेखराज जी का अकेलापन है. राम दरश मिश्र की शेष यात्रा में विघटित होते परिवार की दहशत है. मृदुला गर्ग की एक नाम मीशा नारी मुक्ति बनाम नारी चेतना और उसके दवाबों व अकेलेपन की त्रासदी का रफ केरीकेचर है. शैलेश मटियानी की कुतिया के फूल में शास्त्री जी और श्री अम्बा के विषाद में जागता जीवन है जिसमें कुतिया के फूल खिलते हैं और एक नये सौंदर्य का बोध रचा जाता है. राजी सेठ की खासियत रही है कि वे पुरानी बात को भी नयेपन से उनकी संपूर्णता में उठाती हैं और एक मुकम्मल सोच को आकार देती हैं. सदियों से में भी अग्निपरीक्षा की परंपरा का निर्वहन करती दांपत्य की धवलता को सिद्ध करने के लिये सूली पर टंगी स्त्री है. और राजी सेठ इस विचार को उसके सही वजूद में रखती हैं कि, "इतना तो मिन्नी जान रही है कि वह मिन्नी नहीं है."    


(आगामी पोस्ट में वर्तमान साहित्य महाविशेषांक की कहानियों की चर्चा जारी)
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Wednesday 17 November 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा

                                  हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं 
                                                                     - राकेश रोहित 
(भाग -5) (पूर्व से आगे)

        अथ कथा  जय श्री भगवान कामतानाथ ) में भगवान के जन्मदिन के बहाने एक आतंक भरी फैंटेसी उर्फ फैंटेसी का आतंक है. अब्दुल बिस्मिल्लाह की  नदी किनारे शाम  एक निर्दोष भावुक अपील से लिखी गयी कहानी है, एक बूढ़ा जो कभी नहीं मरता और 'परदेशी' जो उम्र के अंतरालों पर उन्हें तलाशता है और आसमान चिड़ियों से भर जाता है. इस कहानी में एक जगह अब्दुल जी ने लिखा है, "सभी ऋतुएं समय से आयीं और गयीं, गांव की कुछ गायों ने बछड़े जने और कुछ बछियाएं. एक कुम्हार जो बहुत दिनों से बीमार था मर गया. दो युवक डकैती करते हुए पकड़ लिए गये. सब्जी तो महंगी हुई थी अन्य चीजें भी महंगी हो गयी." समय को मापने का यह अंदाज मुझे परेशान करता है और विचलित भी. बहुत दिनों से बीमार,  मर गये कुम्हार और डकैती में पकड़ लिये गये युवक को इस तरह दिनचर्यात्मक घटनात्मकता से जोड़ देना मुझे संवेदना का यथास्थैतिक हनन लगता है, जो हम  झीनी-झीनी बीनी चदरिया के अब्दुल जी से उम्मीद नहीं करते. इन निर्वैयक्तिक स्थितियों के विरुद्ध  निर्मल वर्मा की एक चिंता देखिए,  " क्या कोई इतिहास में लिखेगा कि सितंबर 1955 की शाम को सड़क पर चलती हुई भीड़ में से  एक  चेहरा हँसा था" ( सितंबर की एक शाम, परिंदे ). और अस्तित्व को 'आइडेंटीफाई' करने की इस चिंता तक निर्मल वर्मा अचानक और किसी वैयक्तिक रुझान से अनायास नहीं पहुंचते हैं, बल्कि इसकी एक निरंतर प्रक्रिया है. पिक्चर पोस्टकार्ड  कहानी में इसे देखा जा सकता है. जब परेश एसप्रेसो रेस्तरां में रात के ठीक दस बजे जूक बॉक्स में  रिकॉर्ड बजाता है- थ्री कायन्ज इन द फाउन्टेंन. इसलिए कि नीलू ने कहा था जबकि इस समय वह  ट्रेन में होगी. मैं समझता हूँ यह भावना न केवल मनुष्य की निजी दैहिक भौतिकता का अतिक्रमण करती है वरन् इससे आगे व्यवस्था की भौतिकता, जो नीलू द्वारा हर शहर से पिक्चर पोस्टकार्ड भेजने के आग्रह से अभिव्यक्त होती है, के विरुद्ध कुछ बचा लेने की जिद से जुड़ जाती है. और निर्मल वर्मा पर नामवरी पश्चाताप के बाद अगर आप परिंदे से नाक-भौं सिकोड़ने की मुद्रा में न हों तो यह देखना महत्वपूर्ण है कि पिक्चर पोस्टकार्ड कहानी में अमूर्त रूप से व्यक्त यह भाव परिंदे कहानी में ठोस प्रतीक के रूप में सामने आता है जब मिस लतिका जूली के तकिये के नीचे नीला लिफाफा दबाकर रख देती है. अविवाहित मैडम द्वारा अपनी छात्रा को उसके प्रेम-पत्र वापस कर देने की यह प्रक्रिया विलयन की वह अवस्था है जहां अस्तित्व का पारदर्शी क्रिस्टल आकार ग्रहण करता है. मैं नहीं समझता कि व्यक्ति और व्यक्ति की अस्ति के सूचकों को नकार कर सामुदायिकता की बात की जानी चाहिए या की जा सकती है.


(आगामी पोस्ट में वर्तमान साहित्य महाविशेषांक की कहानियों की चर्चा जारी)
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Sunday 14 November 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा
                हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं 
                                                                     राकेश रोहित 
(भाग -4) (पूर्व से आगे)

        वैसे वर्ष का आरंभ तो महाविशेषांक की 'चमकार' की ऐसी घोषणाओं के साथ हुआ था जिनसे उम्मीद सी बंधती थी कि इस दौरान कुछ ऐसी कहानियां आयेंगी जिनकी गूंज इस सदी  के अंत तक सुनाई पड़ेंगी. पर यहां ऐसा कुछ न था जो हिंदी कहानी की रचनात्मक सत्ता स्थापित  करने की निर्मल इच्छा से भरा हो और अक्सर चर्चा के केंद्र में रचना से ज्यादा रचनेतर चीजें हावी रहीं. महाभारत और महाबार के दौर में विशेषांक के पहले 'महा' विशेषण जोड़ने की मौलिक कल्पना वाले रवीन्द्र कालिया ने छियासठ कहानियों के एकत्रीकरण से यह सिद्ध कर दिया कि पत्रिका सम्पादित करने के लिए दृष्टि कितनी गैर जरूरी चीज होती है! और जब कालियाजी को इसका आभास हुआ तो वे अपने उतावलेपन में ऐ लड़की कहानी की गैर रचनात्मक खूबियों का बखान करने में इस तरह जुट गये मानों उनका संपादक होना कृष्णा सोबती द्वारा वह कहानी लिख पाने के लिए आवश्यक था. ऐसा पहली बार हुआ कि कोई संपादक छियासठ कहानियों को पढ़े जाने का अवकाश दिए बिना किसी कहानी की चर्चा का श्रेय लेने की हडबड़ाहट में इस तरह भर गया हो, और 'मैं महान' वाला आत्मगौरव भी ऐसे कि किस तरह एक पाठक ने लिखा कि वे ऐ लड़की पढकर इतना डर गये कि गायत्री मन्त्र का जाप करने लगे. यह नये किस्म का पुनरुत्थानवाद था और वहां सूचनाएं थीं कि कैसे अलका सरावगी ने अपनी पहली कहानी से ही कमाल कर दिया, कि गंभीर सिंह पालनी की मेढक तक पर चर्चाएँ हो रही हैं और सृंजय अपनी अतीत से आगे किन-किन को पढ़ा चुके थे. फिर भला इसमें बुरा क्या था अगर लगे हाथ 'हंस' के स्तंभकार भारत भारद्वाज ने मौलिक स्थापना दी कि मन्नू जी (मन्नू भंडारी)  की न लिख पाने की विवशता भरे पत्र ही एक महत्वपूर्ण रचना है और इस तरह 'न लिखने का कारण' की राजेंद्र जी (राजेंद्र यादव) की चिन्ता में मन्नू जी भी शामिल हो गयीं सो घलुवे में! और रमेश उपाध्याय ने खुले आम घोषणा कर दी कि अगर कोई प्रकाशक उन्हें संपादन ऑफर करे तो वे  किन पच्चीस कहानियों को चुनेंगे. यह समीक्षा के कुछ नये और सरल प्रतिमानों की रचना थी. प्रकाशक देवता अब तो कृपा करो और जय हो हिंदी रचनाकारों की विनयशीलता, विद्या ददाति विनयम् ...!

        वर्तमान साहित्य के महा विशेषांक में छियासठ रचनाकारों की कहानी पढ़ते हुए एक बात जो सामने आती है वह यह कि वाचक जो 'नयी कहानी' के विरुद्ध एक 'जनवादी दुनिया' की तलाश में गांव गया था वह अब तक वहां से लौटा नहीं है (यह अलग बात है कि उसकी चिट्ठियां लगातार आती हैं और उनसे कई गांव रचे जाते हैं) और आज की हिंदी कहानी अब भी गांव में घूम रही है. इस सिलसिले में यह जानना आतंक भरा है कि यहां बहुत कम कहानियां अपना शहर उसके पूरे आतंक को साथ लेकर उपस्थित हुई हैं. गांव से लेकर कस्बे की या फिर 'देश काल रहित' इन कहानियों में, अमानवीकरण के खतरे से लेकर संवेदनशून्यता का ठंडा स्वीकार, सारा कुछ मौजूद तो है पर इन सबके बावजूद शहर अपने परिवेश सहित जैसे यहां अनुपस्थित है, और यह तब जब अब भी ज्यादातर कथाकार शहरों में हैं, छुट्टियों में गांव भले जाते हों! तो क्या इससे संकेत यह लिया जा सकता है कि साहित्य अब भी जीवन से ज्यादा कल्पना में है कि अपने देखे परिवेश के प्रति हमारी संवेदना कम सचेत है ? शायद एक कहानी है जो इस आरोप से मुक्त होती है वह है गोविन्द मिश्र की आकरामाला और जिसका साथ नगर जो देखन मैं चला, प्रस्थान, एक नाम मीशा, बालूभीत पवन का खंभा, आपकी हंसी, नुक्कड़ नाटक आदि कहानियां देती हैं.   



(आगामी पोस्ट में वर्तमान साहित्य महाविशेषांक की कहानियों की चर्चा जारी)
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Sunday 7 November 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा

                            हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं 

                                                                           - राकेश रोहित 
(भाग -3) (पूर्व से आगे)

      निर्मल वर्मा की बावली को शायद अस्तित्व के अंतःसंचरण के रूप में देखना कठिन हो पर आप इसे उसकी उपस्थिति के अंतःसंचरण के तौर पर ले सकते हैं. यहां तोशी माँ के छुपकर किये जा रहे प्यार से रची जाती अजनबी दुनिया में अपने पिता के अस्तित्व (उपस्थिति) को कांप कर हवा में गुम हो जाने से बचाती है. यह तोशी द्वारा अपने पिता की उपस्थिति बचने का जतन  जो कि उनकी अठन्नी चाँद में अशर्फी सी चमकती है, तोशी का 'एलियनेशन' से मुक्त होना है. वह माँ जो अपनी आतुरता और उल्लास में तोशी में खतरे की टोह लेती है, उसके प्रति निस्संग भाव से तोशी सोचती है, "घर की देहरी के बाहर कितने खतरे दिखाई देते थे उनके बीच चलती हुई बीजी कितनी छोटी हो जाती थी." यह उसका अकेलापन है जो उसकी माँ ने रचा है और जिसके विरूद्ध वह आइने के सामने खड़े होकर खुद में पिता को तलाशती है और अजनबी अंकल के दिये  दस के नोट से चिपकी गंध को चिन्दियों में फाड़कर गुल्लक में रख देती है. यह वही अकेली(बावली) लड़की है जो कुछ खोने से डरती है, जो पाना सब कुछ चाहती है. वह खुले चाँद में खड़ी है, और उसकी हथेली में अठन्नी  अशर्फी की तरह चमकती है.

        मनोज रूपड़ा की जबह पढ़ते हुए मुझे लगा यहां न केवल अस्तित्व अंतःसंचरित होता है वरन् वह एक दूसरे  में विकास भी करता है. कहानी के आरंभ में मनु है जो अपने अंदर अपनी निकहत रचता है और माँ अपने अंदर अपना मंजूर हसन बचाती है. और तब तक दोनों की दुनिया नितांत अपनी है. कुछ हद तक सूनेपन से भरी, बहुत हद तक अजनबी. वहीँ समय की सांप्रदायिकता के रेशे हैं और ऊपर सहजता की चिकनाहट. यहीं कहीं वह दबाव है जो उस बीते समय को हमारे बीत रहे समय से जोड़ता है और हमें एक साथ सारे समयों में अकेला करता है. मंजूर हसन की हत्या और निकहत की आत्महत्या, और कि उसकी कारक परिस्थितयों पर थीसिस लिखती मनु की माँ, यह सब जो एक जड़ता भरे समय की स्वीकारात्मकता है मनु उसे तोड़ता है. वह माँ के अंदर निकहत और माँ, मनु के अंदर मंजूर हसन का विकास करती है, यह न केवल दो पीढ़ियों का मार्मिक जुड़ाव है बल्कि उनके दो स्वतंत्र अस्तित्व की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी जो जबह का कलमा पढ़े जा रहे इस समय में बचा है एक राहत की तरह.

        रमेश उपाध्याय ने इलाहाबादी लेखक त्रय द्वारा ऐ लड़की कहानी  को "बेजोड़,अद्भुत और कालजयी" बतानी को "प्रायोजित चर्चा के प्रवर्तन का अप्रतिम उदहारण "ठहराते हुए लिखा है, "उन्होंने सिर्फ एक कहानी पढ़ी और उसी को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर दिया"(हिंदी कहानी का जनतंत्र, पहल-42). इसलिए सचेत रूप से मैंने 'वर्तमान साहित्य महाविशेषांक' की सभी कहानियों की चर्चा करने के कोशिश आगे की है जबकि एक लुप्त होती हुई नस्ल, जुमराती मियां और एक वक्त की रोटी की चिंताओं में सहज जुड़ाव है और ये कहानियां कई मायनों में श्रेष्ठ हैं, पर इस चर्चा से वर्तमान कहानी के कंटेंट और फार्म की विविधताओं और सीमाओं को समझने की कोशिश हो सकती है  और यह एक भली सी बात होगी.


(आगामी पोस्ट में वर्तमान साहित्य महाविशेषांक की सभी कहानियों की चर्चा)  
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Saturday 6 November 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा

                             हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं 

                                                                          - राकेश रोहित 
(भाग -2) (पूर्व से आगे)

        शायद यह स्पष्ट कर देना आवश्यक हो, मैं कतई नहीं मानता कि नारी लेखन और पुरुष लेखन जैसी कोई चीज होती है और हो भी तो वह रचना के मूल्यांकन का आधार नहीं बन सकती. पर बतौर वर्गीकरण, मुझे लगता है आज का महिला लेखन  अपने जिस स्वरुप में ज्यादातर है वह एक किस्म की रचनात्मक तलाश तो है पर अविष्कार नहीं. कह सकते हैं कि तलाश का निजी दुनिया की जरूरतों से ज्यादा जुड़ाव है कि अविष्कार एक किस्म की रचनात्मक विलासिता है. पर राजेंद्र यादव की शब्दावली में कहें तो 'इन्वेंशन' कहीं-न-कहीं आपकी रचनात्मकता को 'ओरिजनल' बनाता है और साथ ही तलाश की प्रक्रिया के सिरों को समझने में भी मदद करता है कि जिसकी अनुपस्थिति में आप 'दयनीय जस्टिफिकेशन' से मुक्त नहीं हो पाते हैं. यह अकारण नहीं है कि नारी मुक्ति बनाम नारी चेतना को लेकर आज कई भ्रम रचे जा रहे हैं कि कई महिला रचनाकार जहां इस बहाने अपने को 'वुमेन लिब' के आंदोलन से जुड़ा समझने के आत्मसुख से भरी हैं वहीँ वे अपने अंदर एक अभिजात्य किस्म की सैडिस्ट प्रवृत्ति का भी विकास कर रही हैं. उषा प्रियम्वदा का एक प्रसिद्ध उपन्यास है शेष यात्रा (1984).  इसमें एक सरल लड़की अनुका की शादी प्रवासी भारतीय प्रणव से होती है और कुछ अंतराल के बाद उनकी शादी असफल हो जाती है. विदेश में वह अकेली लड़की अपने मौलिक अस्तित्व का अविष्कार करती है. वह खुद डॉक्टर बनती है दीपांकर से विवाह करती है और इस तरह सुख भरे जीवन में लौटती है. यहां तक तो ठीक है पर अंत में अनु की मुलाकात प्रणव से हास्पीटल में होती है. वह मृत्यु के रास्ते पर है. और एक दिन वह अनु से बिना मिले अपना टेस्ट कैंसिल कर वहां से चला जाता है. प्रणव को इस तरह निरीह बना और उसे एक अनिवार्य अपराध बोध से भर उषा जी आखिर क्या कहना चाहती हैं? क्या इससे यह अर्थ नहीं निकलता कि अनुका जिस मुक्ति को पाती और जीती है उसे चुनने के निर्णय के स्वीकार से बचती है. मुझे यहां  प्रेमचंद की एक कहानी इस्तीफा (पांच फूल) याद आती है जिसका मध्यवर्गीय नायक अपने ऑफिस  में क्रूर अपमान विवश होकर सहता है और तनाव में घर लौटता है. उसकी पत्नी स्थिति जान उसे उत्प्रेरित करती है और साहस के साथ इस्तीफा के निर्णय में निर्णायक सहभागिता निभाती है. एक सीधी-सादी कहानी में  अगर प्रेमचन्द इतनी बड़ी बात कह पाये तो यह वर्ग चेतना की समझ से ही हो सका. दरअसल नारी चेतना की बात वर्ग चेतना को उत्क्रमित कर की ही नहीं जा सकती. नारी मुक्ति अगर कोई वायवी चीज नहीं है तो वह शोषण मुक्त परिवेश में ही आकार ले सकती है. नारी लेखन की यह जिद कि वह नए सवाल खड़े कर उनसे जूझेगी सचमुच तमाम रचनात्मकता के लिए विस्मयकारी है. पर इसके बावजूद ऐसा है कि महिला लेखन में  वह तत्व है जिसे आप बतौर लेखन रेखांकित करने से बच नहीं सकते. और यह बेझिझक कहा जा सकता है कि जिस लेखन को आप रचनात्मकता की वजह से जानते हैं वह कृष्णा सोबती  का है जिनकी  कहानी   ऐ लड़की आज चर्चा में है. और 'स्पीड पोस्ट बनाम सपोर्ट पोस्ट' जैसे कई संदेहों व संजीव की टिप्पणी कि वहां 'सिवाय अपनी जीभ व विकलांगता के अबसेशन' के कुछ नहीं है और इसके बावजूद कि सृंजय हिंदी पाठकों को कौवा समझते हैं. कौवे उड़ाने के उन्होंने एक ढेला फेंका है "रौंदी गई फसलों के बीच ऐ लड़की का बिजूका". अब भले ही पुरुषोत्तम अग्रवाल के मुल्ला नसरुद्दीन उवाचते रहें- बात इससे साफ हो सकती है अगर आप जानते हों कि बिजूका, सृंजय की एक लघुकथा का शीर्षक है और सृंजय मचान पर बैठे अपने खेत देख रहे हैं!

        ......तो संभव है यह संयोग हो पर मैं इसे महत्वपूर्ण मानता हूँ कि ऐ लड़की की चर्चा निर्मल वर्मा की बावली और मनोज रूपड़ा की जबह (तीनों वर्तमान साहित्य, महाविशेषांक) के सन्दर्भ में बेहतर की जा सकती है. यह बात रचनात्मकता की सततता (continuum) की ओर  इशारा करती है अगर तीन भिन्न रचनाकारों की रचनाओं के अंतःसूत्र एक हों. तीनो कहानी में ध्यान दें तो ऐसा लगता है यह अस्तित्वों के अंतःसंचरण की कथा है. ऐ लड़की में माँ और लड़की का एक दूसरे में परस्पर घुलना है. वहां माँ अपनी जीवन-स्मृति लड़की में खोलती है और इस तरह जीने की इच्छा का आवाहन करती है (तुम्हें बार-बार बुलाती हूँ तो इसलिए कि तुमसे अपने लिए ताकत खींचती हूँ) और उस अनुभव को छू पाती है, "मैं तुमलोगों की माँ जरुर हूँ पर तुमसे अलग हूँ. मैं तुम नहीं और तुम मैं नहीं. मैं मैं हूँ." पर इस अनुभव को पाने के पहले वे एक परकाया प्रवेश जैसी चीज से गुजराती हैं, वह है एक दूसरे को पाना. लड़की से बात करती हुई माँ उसके खीझने पर कहती है, "मैं तुम्हें चुभा थोड़े रही हूँ. सखि-सहेलियां भी ऐसी बातें कर लेती हैं." यही माँ द्वारा लड़की को एक स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में पाने की विनम्र प्रक्रिया है. यहां परम्पराओं की दुनिया से वर्जनाओं की मुक्ति है. उन  वर्जनाओं की जो आख़िरी बीमारी में नाना पुत्र-मोह के अधीन पास खड़ी बेटियों को आवाज नहीं देते हैं. माँ भी इससे बच नहीं पाती. वह अंत में फिर इसी पारंपरिक वर्जना की ओर लौटती है. वह मृत्यु के अंतिम क्षण कहती  है, "डॉक्टर को नहीं अपने भाई  को बुला. खूंटे पर से मेरा घोड़ा खोल देगा समुद्र पार हो जाऊंगी." और लड़की उसे उस समुद्र में डुबकी ले नहा लेने कहती है. वह अब आश्वस्त है माँ के अस्तित्व के प्रति कि माँ ने उसे 'डिसकवर' कर लिया है.
                                                                                                                                                  
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Friday 5 November 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा 

               हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं 

                                                                      - राकेश रोहित 
(भाग - 1)


( पूर्वकथन : "हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं" आलेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप में पहली बार जून 1992 में प्रकाशित हुआ था. कहानी के 'महाविशेषांक' की संकल्पना के दौर में प्रकाशित यह आलेख  मूल रूप से वर्ष 1991 में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हिंदी कहानियों  पर केंद्रित है और इन अर्थों में महत्वपूर्ण है कि शायद किसी एक आलेख में संभवतः पहली बार इतनी कहानियों की चर्चा सम्यक भाव से की गयी है. मित्रों के सुझाव व आग्रह पर हम इस आलेख का पुनः प्रकाशन इस विश्वास के के साथ कर रहे हैं कि संभव है  इस आलेख के कुछ संदर्भ समय के साथ पुराने पड़ गये हों पर इससे आलेख में उठाये गये रचनात्मक चिंताओं की प्रासंगिकता कम नहीं होती है. हम अपने विज्ञ मित्रों और पाठकों  से अनुरोध करते हैं कि वे कृपया आलेख के पठन के वक्त इसके  मूल प्रकाशन का वर्ष ध्यान में रखें और संदर्भों को उसी दृष्टि से देखें. संसाधन की सीमाओं के कारण हम इसका प्रकाशन धारावाहिक रूप से ही कर पा रहे हैं. आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझाओं का इंतजार रहेगा.) 
        
        अगर राजेंद्र राव अपने नये स्तंभ 'हाल मुरीदों का कहना' की  शुरुआत 'एक हाहाकारी दृश्य' पर इस प्रतिक्रिया के साथ कर रहे हों कि, "महिला कथाकारों का उल्लेख और उनके कृतित्व की चर्चा कुछ इस ढंग से की जाती है कि उन्हें जरा भी ठेस न लगे. नई लेखिकाओं को तो अनुभव भी नहीं होने दिया जाता कि रचनायात्रा एक संघर्षपूर्ण कंटकाकीर्ण पथ  है. उदाहरण के तौर पर सुरभि पाण्डेय और गीतांजली श्री की चित्र सहित दो-तीन कहानियां छपी होंगी मगर गजब का हल्ला है. इस तरह की अतिउत्साहवादिता से महिला  लेखिकाओं ने साहित्य में भी अपने आपको रक्षिता, असूर्यस्पर्श्या और आलोचना-प्रत्यालोचना से परे मानना शुरू कर  दिया हो तो क्या  आश्चर्य."  तो यह मान लेना चाहिए कि वे इसमें निहित विवाद को भी भली-भांति समझ रहे होंगे. वैसे यह तो आम है कि महिला लेखन को लेकर अक्सर विवाद होते रहे हैं और इसी बहाने इसे आम लेखन से अलग रखने/करने की कोशिशें भी बची रहती हैं. पर एक ही समय में यह बात अलग-अलग तौर पर उठाई जा रही हो तो इस दौर में जब मार्क्सवादी गढों से समाजवाद की समाप्ति के बाद अचानक यथास्थिति के दर्शन को स्थापित करनेवाले सुविधावादी लेखन का  जोर हो तो मैं समझता हूँ महिला लेखन पर की जा रही चिंताओं से एक संकेत ग्रहण किया जा सकता है. यह अनायास नहीं है कि जिस समय उपेन्द्र नाथ अश्क 'महिला कथा लेखन की अर्धशती' पर लिख रहे हों उसी समय राजेंद्र यादव, नासिरा  शर्मा  बनाम  मृदुला गर्ग के बहाने 'यथास्थिति में लौटती कद्दावर औरतें', शाल्मली और ठीकरे की मंगनी की प्रतिसमीक्षा में लिखने तथा उषा महाजन  'ऊबे हुए सुखियों के दुःख' पर सफाई देने को विवश हों. पर इससे पहले, क्या यह मान लेना भी एक क़िस्म का सुविधावाद न होगा कि महिला लेखन अपने अधिकांश स्तरों में एक सुविधावादी लेखन है और जिसे न केवल महिलाएं बल्कि उनसे ज्यादा बड़ी संख्या में पुरुष लेखक कर रहे हैं? और तब ऐसी स्थिति में इस किस्म के सुविधावादी लेखन को महिला लेखन के रूप में रेखांकित करना अवश्य ही पुरुष उपनिवेशित मानसिकता का स्पष्ट प्रतीक है. पर शायद समीक्षाएं (आलोचना नहीं) अक्सर प्रचलित प्रतीकों का इस्तेमाल करती हैं. जैसा प्रेमचंद ने 'हंस' नवंबर 1930 में जयशंकर प्रसाद के उपन्यास कंकाल की समीक्षा करते हुए लिखा," लेखक की कवितामयी शैली में यद्यपि इतनी सजीवता और मरदानापन नहीं, पर उसकी कसर सौंदर्य और कोमलता ने पूरी कर दी है" (कहानीकार-112). इस सम्बन्ध में अपने एक लेख में वीर भारत तलवार ने लिखा है, " साहित्य में फेमिनिन होने से प्रेमचंद का मतलब भावुकता, दुर्बलता और प्रवाह के साथ बह जाने से है. मैस्कुलिन साहित्य वह जिसमें दृढता हो, शक्ति हो, चुनौतियों का सामना करने का साहस हो. यह पुरुषोचित और स्त्रियोचित गुणों के बारे में रोमांटिक धारणा तो है ही, इस अर्थ में अंतर्विरोधी भी है कि एक ओर प्रेमचंद स्त्री-पुरुष की समानता की बात करते हैं, दूसरी ओर फेमिनिन को मैस्कुलिन की तुलना में घटिया समझते हैं" (इंद्रप्रस्थ भारती, जुलाई-सितंबर 1991). और यहां एक चिंता जन्म लेनी चाहिए अगर महिला लेखन इसके विरुद्ध हस्तक्षेप नहीं रच पा रहा हो जैसा कि भारत भारद्वाज लिखते हैं, "एक दो अपवादों को छोड़कर अधिकांश कथा लेखिकाओं की कहानियां इस आरोप को बलपूर्वक झुठलाती नहीं हैं कि उनकी कहानियों का घेरा दांपत्य संबंधों में आयी दरार, प्रेमी-प्रेमिका का अंतर्द्वंद्व एवं नारी की यातना एवं यंत्रणा का चित्रण है."

                                                                                                                                                    .....जारी