Saturday 19 February 2011

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित


कथाचर्चा
      हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं
                                                                    - राकेश रोहित
(भाग- 15) (पूर्व से आगे)

          विजय प्रताप की कहानी खराब लड़की ( हंस, जनवरी 1991) को मूल्य के अंत को सार्थक व्यावहारिकता के रूप में स्वीकार लिए जाने की कोशिश के रूप में समझा जा रहा है पर यह कहानी उतनी सहज नहीं कि इस मुद्दे पर आप इतनी आसानी से चिढ़ जाएं. दरअसल यह परिवार में रिश्तों को तार्किक ढंग से प्राप्त करने की वह 'एप्रोच' है जहां नारी, प्रेम के अंत के इस समय में, अपने को मुक्त कर सकती है. सुथि द्वारा आत्म-समर्थित जीवनशैली को पाने की यह प्रक्रिया कितनी सहज है इसका संकेत पिता और बेटी के बीच चाकू को उठाकर फेंक दिये जाने में मिलता है. इस कहानी से समय के तनाव को 'फीमेल नेरेशन' में आप उसी तरह पाते हैं जिस तरह अखिलेश की चिट्ठी ( हंस, अगस्त 1989) से 'मेल नेरेशन' में. श्यामा की रोटी (अशोक राही, वही) एक अच्छी प्रेम कहानी है जिसमें पगली श्यामा उस प्रेम की प्रतीक है, अनु द्वारा रोटी दिये जाने के बाद भी जिसका अंत इस दौर की नियति है. 'नैरेटर' (narrator) का कहानी के मध्य सीधा संवाद करना इसे रूमानी होने से बचाता है. लवलीन की  कुंडली ( वही, फरवरी १९९१) आफिसों में कम कर रही, और 'मेल कमेन्ट' से जूझती स्त्री की त्रासदी का बयान तो है पर इसे वैचारिकता को लेकर और सजग होना चाहिए था. सुभाष पन्त  की  पहाड़ की सुबह (वही, मार्च 1991) लोककथा का गंभीर आनंद देती है.  नरेंद्र नागदेव  की लिस्ट ( वही) बेरोजगारी की स्थितियों पर लिखी अच्छी कहानी तो है पर इससे एक महत्वपूर्ण संकेत लिया जा सकता है कि यह वह कहानी है जो अनुभव को यथार्थ में बदलने की हडबड़ी से उपजती है. इससे अलग यहां यह जिक्र किया जाना चाहिए कि फैंटेसी के इसी उपयोग से  भाईयों, मुझे जड़ की तलाश है (सत्यनारायण, हंस जनवरी 1987) जैसी उत्कृष्ट रचना संभव हो सकी है. 

            कहा जाना चाहिए  हिन्दी कहानी में एक शहर होता है जो गांव सा दीखता है, एक गांव होता है जो शहर सा दीखता है  और एक बिहार होता है जो किसी सा नहीं दीखता है. वैसे बिहार वाले चाहें तो इस पर गर्व कर सकते है कि इस 'बिहार' का विकास हिन्दी कहानी में बिहार से बाहर भी बहुत हुआ और नकली जनवाद का आतंक रचने में ये कहानियां अव्वल रहीं. अब सुधीश पचौरी  भले चिंता करें कि बिहार की कहानी में भागलपुर की खबर क्यों नहीं है? मुझे लगता है कि बिहार की कहानी का जो मूल संकट है वह यह कि यह न केवल अपने प्रान्त के परिवर्तनशील यथार्थ की उपेक्षा करती वरन् उससे काफी हद तक अनभिज्ञ भी है. इतिहास- बोध जैसी चीज का यहां बिल्कुल अभाव है और इसलिए यह अपने समय में अपनी अजनबीयत को पकड़ पाने में पिछड़ जाती है और अक्सर यथार्थ को एकांगी नजरिये से देखती है. इस 'टोटल कंसेप्शन' के अभाव के बाद बिहार-कहानी में विजन का विकास हो पाना तो मुमकिन न ही था, पर जैसा कि हिन्दी कहानी में होता है वह भाषिक क्षमता से विजन की अनुपस्थिति को छुपाती है और गाहे-बगाहे इसी प्रक्रिया से विजन को पाती है, वह भाषिक क्षमता प्राप्त करने में भी बिहार-कहानी अक्सर चूकती है. जबकि बिहार में कई सशक्त गद्य परंपराओं- वह चाहे शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह का हो या फिर आंचलिकता का मिथ गढ़ने वाले 'रेणु' का- लंबा इतिहास रहा है. ऐसे में आज यह देखना हैरत भरा है कि बिहार के कहानीकारों की  कोई ऐसी व्यक्तिगत पहचान नहीं है कि आप उन्हें कुछ मानक आधारों पर अलग कर सकें. इस सिलसिले में शायद एक नाम है जिसे विचार में अवश्य रखा जाना चाहिए, वह है- चन्द्र किशोर जायसवाल. इन्होने हिन्दी कहानी में जो खास चीज विकसित की है वह है कथा के समांतर सहज व्यंग्य की, सहायक भाव की तरह उपस्थिति जो बिना किसी बड़बोलेपन के मनुष्य के अंतर के छद्म पर आघात करती है. और यह इसके बावजूद कि इनके यहां आंचलिकता न केवल आभिजात्य है, वरन् कथात्मकता की 'डिमांड' भी ज्यादा है.

(आगामी पोस्ट में चन्द्र किशोर जायसवाल की कहानी पर चर्चा)
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Saturday 5 February 2011

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित


कथाचर्चा 
             हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं 
                                                                    - राकेश रोहित 
(भाग- 14) (पूर्व से आगे)


              हमारी हिंदी कहानी  लेखकीय संवेदन क्षमता की श्रेष्ठता और पाठकीय संवेदन योग्यता के प्रति संदेह से आक्रांत रहती है और इसलिए हमारी कहानी में 'स्पेस' का अभाव रहता है. वही सच है जो कहानी में है और वही सारा सच है, कुछ ऐसा ही भाव आज की कहानी प्रस्तुत करती है. और इसलिए हिंदी कहानी में अनुपस्थित-पात्र योजना का अभाव है. यह चीज फणीश्वर नाथ 'रेणु' में देखी जा सकती है. उनके यहां अनुपस्थित पात्र अक्सर कहानी को 'स्पेस' और 'डाइमेंशन' देते हैं. प्रकाश कांत की  अमर घर चल  (हंस, सितंबर, 1991) का जिक्र इसलिए किया जाना चाहिए कि यह उस 'तकनी' को अपनाती है. अमर घर चल  में केवल वह सच ही कहानी नहीं है जो बच्चे के प्रति आपके मासूम चिंताओं से रचा जाता है, बल्कि बच्चे के माध्यम से आप उस पिता के तनाव के आतंक तक पहुंचते हैं जो कहानी में अनुपस्थित है और जो आतंक बच्चे की दुनिया में रिसता हुआ बहता है. जब आप यह मान लेते हैं कि कहानी ने 'रिलेशन' का अंत कर दिया है कि सारे पात्र अब 'सेपरेट यूनिट'  हैं वहां माँ, माँ नहीं है, पिता, पिता नहीं हैं और बच्चा, बच्चा नहीं है तो आप पाते हैं कि बच्चा 'इररेशनल' होने की हद तक 'रिलेशन' को 'फाइंड' करना चाहता है और आप एक बेचैनी से भर जाते हैं. आप उस बेचैन दुनिया में प्रवेश करते हैं, बच्चा जिससे मुक्त होना चाहता है. यह जो एक पीढ़ी को 'एलियनेट' कर दिये जाने वाला माहौल है, कहानी उसको पकड़ना चाहती है और एक तार्किकता से जीवन के अनुपस्थित भाव को पा लेने की इच्छा से भर जाती है.
      
          रामधारी सिंह दिवाकर की कहानी  द्वार पूजा (वर्तमान साहित्य, जुलाई 1991) पिपही बजाने  वाले झमेली द्वारा सुखदेव कलक्टर की बेटी की शादी में पिपही बजाने की इच्छा की कहानी है. यह एक सामान्य इच्छा रह जाती अगर झमेली सुखदेव के बाप और उनकी बहन की शादी में पिपही बजाने की परंपरा को अपने अधिकार से न जोड़ते और साथ-साथ इस भावना से न जुड़े रहते, "दुलहिन भी सुन लेगी हमारा बाजा." पर धीरे-धीरे कहानी में यह बात फैलती है,  "गांव वालों की कोई खास जरुरत नहीं है." और झमेली क्या अपनी अपमानित सत्ता से बेखबर पिपही बजाने के सुख में डूबा है? नहीं, जब आप देखते हैं कि विशाल शामियाने के पीछे गोहाल में उसने अपनी मंडली रची है, अपनी एक दुनिया बनायी है जिसमें उसकी सत्ता है. वह अब विवाह की घटना से जैसे ऊपर है कि झमेली  भी यह बात बिल्कुल भूल गया है कि वह अपनी पोती की शादी में पिपही बजाने आया है. इस दुनिया में उस चमक भरी दुनिया का हस्तक्षेप भी है जब सुखदेव बाबू पंडित चुनचुन झा को शास्त्री जी के साथ बैठ जाने को कहते हैं, "गरीब पुरोहित हैं, बेचारे को कुछ दान-दक्षिणा भी मिल जायेगी." और तब राधो सिंह पंडी जी को द्वार पूजा के लिये छोड़कर स्मृतियों के साथ जीवित दूसरी दुनिया में लौटते हैं. जहां एक संदेश पिपही से निकल कर फ़ैल रहा है, "माय हे, अब न बचत लंका--- राजमंदिर चढि कागा बोले---."   

(आगामी पोस्ट में उस वर्ष की अन्य कहानियों पर चर्चा)
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