कथाचर्चा
हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं
- राकेश रोहित
(भाग- 14) (पूर्व से आगे)
हमारी हिंदी कहानी लेखकीय संवेदन क्षमता की श्रेष्ठता और पाठकीय संवेदन योग्यता के प्रति संदेह से आक्रांत रहती है और इसलिए हमारी कहानी में 'स्पेस' का अभाव रहता है. वही सच है जो कहानी में है और वही सारा सच है, कुछ ऐसा ही भाव आज की कहानी प्रस्तुत करती है. और इसलिए हिंदी कहानी में अनुपस्थित-पात्र योजना का अभाव है. यह चीज फणीश्वर नाथ 'रेणु' में देखी जा सकती है. उनके यहां अनुपस्थित पात्र अक्सर कहानी को 'स्पेस' और 'डाइमेंशन' देते हैं. प्रकाश कांत की अमर घर चल (हंस, सितंबर, 1991) का जिक्र इसलिए किया जाना चाहिए कि यह उस 'तकनीक' को अपनाती है. अमर घर चल में केवल वह सच ही कहानी नहीं है जो बच्चे के प्रति आपके मासूम चिंताओं से रचा जाता है, बल्कि बच्चे के माध्यम से आप उस पिता के तनाव के आतंक तक पहुंचते हैं जो कहानी में अनुपस्थित है और जो आतंक बच्चे की दुनिया में रिसता हुआ बहता है. जब आप यह मान लेते हैं कि कहानी ने 'रिलेशन' का अंत कर दिया है कि सारे पात्र अब 'सेपरेट यूनिट' हैं वहां माँ, माँ नहीं है, पिता, पिता नहीं हैं और बच्चा, बच्चा नहीं है तो आप पाते हैं कि बच्चा 'इररेशनल' होने की हद तक 'रिलेशन' को 'फाइंड' करना चाहता है और आप एक बेचैनी से भर जाते हैं. आप उस बेचैन दुनिया में प्रवेश करते हैं, बच्चा जिससे मुक्त होना चाहता है. यह जो एक पीढ़ी को 'एलियनेट' कर दिये जाने वाला माहौल है, कहानी उसको पकड़ना चाहती है और एक तार्किकता से जीवन के अनुपस्थित भाव को पा लेने की इच्छा से भर जाती है.
रामधारी सिंह दिवाकर की कहानी द्वार पूजा (वर्तमान साहित्य, जुलाई 1991) पिपही बजाने वाले झमेली द्वारा सुखदेव कलक्टर की बेटी की शादी में पिपही बजाने की इच्छा की कहानी है. यह एक सामान्य इच्छा रह जाती अगर झमेली सुखदेव के बाप और उनकी बहन की शादी में पिपही बजाने की परंपरा को अपने अधिकार से न जोड़ते और साथ-साथ इस भावना से न जुड़े रहते, "दुलहिन भी सुन लेगी हमारा बाजा." पर धीरे-धीरे कहानी में यह बात फैलती है, "गांव वालों की कोई खास जरुरत नहीं है." और झमेली क्या अपनी अपमानित सत्ता से बेखबर पिपही बजाने के सुख में डूबा है? नहीं, जब आप देखते हैं कि विशाल शामियाने के पीछे गोहाल में उसने अपनी मंडली रची है, अपनी एक दुनिया बनायी है जिसमें उसकी सत्ता है. वह अब विवाह की घटना से जैसे ऊपर है कि झमेली भी यह बात बिल्कुल भूल गया है कि वह अपनी पोती की शादी में पिपही बजाने आया है. इस दुनिया में उस चमक भरी दुनिया का हस्तक्षेप भी है जब सुखदेव बाबू पंडित चुनचुन झा को शास्त्री जी के साथ बैठ जाने को कहते हैं, "गरीब पुरोहित हैं, बेचारे को कुछ दान-दक्षिणा भी मिल जायेगी." और तब राधो सिंह पंडी जी को द्वार पूजा के लिये छोड़कर स्मृतियों के साथ जीवित दूसरी दुनिया में लौटते हैं. जहां एक संदेश पिपही से निकल कर फ़ैल रहा है, "माय हे, अब न बचत लंका--- राजमंदिर चढि कागा बोले---."
(आगामी पोस्ट में उस वर्ष की अन्य कहानियों पर चर्चा)
...जारी
बहुत दिनों बाद कहानियों पर विस्तृत चर्चा पढ़ना सुखकर लगा. आप निसन्देह बड़ा काम कर रहे हैं.
ReplyDeleteअच्छी श्रंखला है। विगत बीस सालों में सामान्यतः कहानियों की गुणवत्ता में सामुहिक रुप से ह्रास हुआ है। आपकी निगाह में बीच के इन बीस सालों में छपी कुछ अच्छी कहानियों के साहित्यिक और सामाजिक मूल्यांकन पर कुछ सामग्री है?
ReplyDeletenaye drishtikon viksit kar rahi hoon. aapki sameeksha se........
ReplyDeleteउल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं आप। गहराई से आ रहा विश्लेषण आपकी अध्ययनाशीलता और दृष्टि-क्षमता का सूचक है। आलोचकीय सतर्कता यह अपेक्षित है कि हाल के दिनों में कुछ इकाइयों द्वारा गलत ढंग से पेश 'बोंसाई' (जनमने के साथ से ही मुंह से चांदी का चम्मच चमका कथाकारनुमा जीव) हावी न होने पाये। सुना है ऐसे 'प्रतिभाशाली'तत्व संपादक और समीक्षकों से बहुत लपककर मिलते हैं, तत्पश्चात अपने पद-प्रभाव का काला जादू भी चलाने लगते हैं। अपने इसी मेलजोल-घालमेल फार्मूले के बूते वे दो-चार आनी-कानी कहानियों के बूते ही संग्रहशुदा भी हो गये हैं और चर्चाएं भी जुगाड़ ले रहे हैं। गनीमत यही कि अभी तक उनके प्रस्तोता-प्रशंसक चिह्नित लोग ही हैं लेकिन अब वे दूसरों को भी झांसा देकर चर्चा बटोरने के प्रयास में सक्रिय हो गये हैं। साहित्य सृजन के क्षेत्र को हमारे आचार्यों ने साधना-क्षेत्र कहा है, किंतु पद-पादुकाधारी ऐसे तत्व रचना-धर्म की इस मूल छवि को ही पलीता लगाने में जुटे हैं। हमें ऐसे तत्वों को भरसक बेनक़ाब करने का प्रयास करना चाहिए। कम से कम उनके हाथों अपना दुरुपयोग तो नहीं ही होने देना चाहिए। शुभकामनाएं...
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