Wednesday 27 October 2010

बहुत थोड़े शब्द हैं - राकेश रोहित

कविता
बहुत थोड़े शब्द हैं
-राकेश रोहित 

बहुत थोड़े शब्द हैं, कहता रहा कवि  केवल
और सोचिए तो इससे निराश नहीं थे बच्चे.
खो रहे हैं अर्थ, शब्द सारे
कि प्यार का मतलब बीमार लड़कियां हैं
और घर, दो-चार खिड़कियां
धूप, रोशनी का निशान है
फूल, क्षण का रुमान!
और जो शब्दों को लेकर हमारे सामने खड़ा है
जिसकी मूंछों के नीचे मुस्कराहट है
और आँखों में शरारत
समय, उसके लिए केवल हाथ में बंधी घड़ी है.

घिस डाले कुछ शब्द उन्होंने, गढता रहा कवि  केवल.

ऐसे में एक कवि है कितना लाचार
कि लिखे दुःख के लिए घृणा, और उम्मीद को चमत्कार.
क्या हो अगर घिसटती रहे कविता कुछ तुकों तक
कोई नहीं सहेजता शब्द.
बच्चों के हाथ में पतंगें हैं, तो वे चुप हैं
लड़कियों के घरौंदे हैं तो उनमें खामोश पुतलियां हैं
माँ  के पास कुछ गीत हैं तो नहीं है उनके सुयोग
बहनों के कुछ पत्र, तो नहीं हैं उनके पते
कुछ आशीष तो नहीं है साहस
कहां हैं मेरे असील शब्द?

क्या होगा कविता का
बना दो इस पन्ने की नाव *
तो कहीं नहीं जाएगी
उड़ा दो बना कनकौवे तो
रास्ता भूल जायेगी.

केवल हमीं हैं जो कवि हैं
किए बैठे हैं भरोसा इन पर
एक भोली आस्था एक खत्म होते तमाशे पर
लिखते हैं खुद को पत्र
खुद को ही करते हैं याद
जैसे यह खुद को ही प्यार करना है.
एक मनोरोगी की तरह टिका देते हैं
धरती, शब्दों की रीढ़ पर
जबकि टिकाओ तो टिकती नहीं है
उंगली भी अपनी.

बहुत सारा उन्माद है
बहुत सारी प्रार्थना है
और भूलते शब्द हैं.
हमीं ने रचा था कहो तो कैसी
अजनबीयत  भर जाती है अपने अंदर
हमीं ने की थी प्रार्थना कभी
धरती को बचाने की
सोचो तो दंभ  लगता है.
हमीं ने दिया भाषा को संस्कार
इस पर तो नहीं करेगा कोई विश्वास.
लोग क्षुब्ध होंगे
हँस देंगे जानकार
कि बचा तो नहीं पाते कविता
सजा तो नहीं पाते उम्मीद
धरती को कहते हैं, जैसे
हाथ में सूखती नारंगी है
और जानते तक नहीं
व्यास किलोमीटर तक में सही.

टुकड़ों में बंट गया है जीवन
शब्द चूसी हुई ईख की तरह
खुले मैदान में बिखरे हैं
इनमें था रस, कहे कवि
तो इतना बड़ा अपराध!

बहुत थोड़े शब्द हैं, कहता रहा कवि केवल
घिस डाले कुछ शब्द उन्होंने, गढता रहा कवि केवल.
(* कविता लिखे जाने समय प्रकाशित होने का अर्थ सामान्यतया कागज पर छपने से था.)

Sunday 24 October 2010

संप्रेषण - राकेश रोहित

लघुकथा
                              
                                                               संप्रेषण
                                                               
                                                                    - राकेश रोहित 


        परदे पर कोई  भावप्रवण दृश्य चल रहा था. वह भावातिरेक में बुदबुदाया, " सिनेमा संप्रेषण का सशक्त माध्यम साबित हो सकता है." अचानक इंटरवल हो गया. परदे पर एक रील चमकने लगी- " धूम्रपान निषेध." और वह समझ नहीं पा रहा था कि उसके सिगरेट के धुंए से मुझे खांसी हो रही थी. ooo

आँसू - राकेश रोहित

लघुकथा 

                              आँसू 
                                                                  
                                                                     - राकेश रोहित

         वह शायर नहीं था, पर उसकी झील- सी आँखों में डूब गया. ... और उसकी झील- सी आँखें समंदर बन गईं, जिनसे हर वक्त नमक रिसता रहा.  ooo

संतुलन - राकेश रोहित

लघुकथा 
                                          
                              संतुलन 
                                                                   
                                                               - राकेश रोहित

        लड़की के पांव में जन्म से कुछ लंगड़ापन था. डॉक्टर ने कहा - ठीक हो सकता है, पर खर्च काफी होगा. पिता ने कुछ सोचा, घर के अर्थ-संतुलन के बारे में और धूम-धाम से उसकी शादी कर दी. शादी तो करनी ही थी. अब लड़के वाले पांव का इलाज खुद करवा लेंगे.

        एक दिन लड़की चूल्हे के पास अपना संतुलन  संभाल न सकने के कारण गिर पड़ी और.... ooo

खुशबू - राकेश रोहित

 लघुकथा
              खुशबू
                                                                  - राकेश रोहित 


        "मुझे कल गांव जाना होगा," मैंने अपनी पत्नी को सूचना दी.
        "क्यों ? अभी पिछले सप्ताह तो गए थे."
        "हां, पत्रिका के कवर के लिए फूलों के कुछ स्नैप - शॉट लेने हैं."
       "तो, फूलों के लिए गांव जाओगे! मिस डिसूजा के पास तो एक-से-एक प्लास्टिक के फूल हैं - बिल्कुल असली दीखते हैं."
        "हां ठीक ही तो है, तस्वीर से कौन-सी खुशबू आनी है."- मैंने खुद को समझाया जैसे. ooo 

Saturday 16 October 2010

सात आदमी को छूओ - राकेश रोहित

लघुकथा 
                             सात आदमी को छूओ 
                                                                         - राकेश रोहित 

        यह प्रार्थना का समय था. स्कूलों की घंटियां बज चुकी थीं और बच्चे कतार में खड़े थे. मैंने उन्हें देखा. और मुझे वितृष्णा हुई उस भाव के प्रति जिसमें दुनिया को बचा लेने की गंध थी. तभी मेरे सामने एक छोटा बच्चा आ गया; दबे कदम, धीरे-धीरे. और प्रार्थना होती देख वह असहज हो गया. उसका चेहरा परेशान हो रहा था. वह थोड़ा हटकर एक कोने में खड़ा हो गया, जहां प्रार्थना से अलग एक बच्ची खड़ी थी. बच्ची ने अपने बस्ते को संभाला और उसे देख मुस्कराई. फिर उसने बच्चे से कुछ कहा.  बच्चे ने चौंक कर पीछे देखा, पर वहां कोई न था. बच्ची खुश हो गई. उसने अपनी नन्हीं हथेलियों से हल्की ताली बजाई और बोली - " छका दिए, सात आदमी को छूओ... सात आदमी को छूओ!"  बच्चा भी अचानक प्रसन्न हो आया था. उसे प्रायश्चित करना था - झूठ को सच समझने का, सात आदमी को छूकर. उसने बच्ची से शुरुआत की और उसे छूकर चिल्लाया- एक! फिर वह दौड़ गया. सामने दो बच्चे कांच की गोली से खेल रहे थे ... दो-तीन, उसने गिना. मैं उनके पास आ रहा था और मुझे लग रहा था जैसे मैं उसे खेल में शामिल हो गया हूँ. एक खुशी मेरे अंदर फूट रही थी. बच्चा सड़क पर इधर-उधर दौड़ रहा था. उसने कागज चुन रहे दो बच्चों को गिना. चार-पांच. अब सड़क पर कोई न था और बच्चा इधर-उधर देखता परेशान हो रहा था. मुझे लगा अब वह मुझे छूएगा और तब केवल एक की कमी रह जाएगी. मैंने अपनी चाल कम कर दी ताकि वह मुझे छू सके. तभी एक लड़का सर पर टोकरी रखे साग बेचता उधर से निकला. उसने उसे छूआ - छ:, और फिर मेरे पीछे दौड़ कर वह मुझे छू कर चिल्लाया - सात! दूर खड़ी बच्ची खिलखिलाकर हँस पडी. एक उत्फुल्लता उसके चेहरे पर थी. सात आदमी को छूओ, उसने तालियां बजाकर कहा. अब यह खेल मुझे जारी रखना था. पर मैं धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था. बच्चे धीरे से कक्षा में लौट रहे थे. और खेल का सिरा मुझ तक खिंचता-खिंचता टूट  गया था. एक खिन्नता मेरे आगे खन्न से बिथर गई थी. सामने धूप तेज हो रही थी और एक आवाज अब भी मेरे पीछे थी- सात आदमी को छूओ. ooo 

Thursday 14 October 2010

हस्तांतरण - राकेश रोहित

लघुकथा 
                                                  हस्तांतरण 
                                                                 - राकेश रोहित 


        वर्षा के जमे पानी में मेरी नाव तैर रही  थी. मैं  उसे  देखने  में  मग्न था. तभी  पास  का  एक  बच्चा  पानी  में उछलता-कूदता आगे बढ़ा. उसने हाथ बढ़ाकर नाव को उठा लिया और किनारे लाकर फिर से तैरा  दिया. नाव तैरती रही. अब वह ताली बजकर हँस रहा था और मैं गुमसुम खड़ा था.              ooo

समझौता – राकेश रोहित

लघुकथा                                                                
                    समझौता       
                                                                  – राकेश रोहित                                

        वे लड़ते हुए अचानक ठहर गए. "यहां कोई देख लेगा," उनमें से एक ने कहा. "चलो हम मैदान में चलें."            ooo                                                                                                                                                                                                                                                                                                           

Tuesday 12 October 2010

स्वर्ग से दूर - राकेश रोहित

लघुकथा

                                  स्वर्ग से दूर
                                                                     - राकेश रोहित

      " शादी के बारे में तुम्हारा विचार क्या है?" लड़के ने पूछा तो लड़की ने कहा, "कुछ खास नहीं. मैं इसे जरूरी नहीं समझती प्रेम के लिए."

      "अफ़सोस तुम ऐसा सोचती हो, फिर भी मैं तुमसे प्यार करता हूँ."

      "... और जब स्वप्न-स्वर्ग में उन्होंने वर्जित फल चखे तो लड़की शादी करना चाहती थी और लड़के का विचार बदल गया था!                                                                                                                         ooo

स्वप्न - राकेश रोहित

लघुकथा
                                  
                              स्वप्न 
                                                                - राकेश रोहित 

        औरत को अचानक भान हुआ, यह खूबसूरत दुनिया उसके लिए बनी है और प्रतिपल को उसको हिस्सेदारी अपेक्षित है. उसकी आँखें खुल गईं.

        पुरुष ने कहा, "प्रिये, तुम कितना सुन्दर स्वप्न देख लेती हो," और वह मुस्करा कर उसकी बांहों में सो गई. ooo                                                                                                                                                                            

Monday 11 October 2010

ईश्वर ने शोक मनाया - राकेश रोहित


लघुकथा 


                             ईश्वर ने शोक मनाया 
                                                                         - राकेश रोहित

        ईश्वर ने शोक मनाया. वह ईश्वर, ईश्वर नहीं है. हमारे मोहल्ले में रहता है और हरी सब्जियां बेचता है. हम सब उसे ईश्वर से ज्यादा हरी सब्जी से जानते हैं. मैं उसे ज्यादा  नहीं जानता, पर इतना अवश्य कि ईश्वर है और हैं सब्जियां हरी-हरी. लेकिन एक शाम वह मेरे पास पहुंचा- "सब्जियां खरीद लीजिए भइया, हरी है."

      मुझे अचरज हुआ. मेरे पास कभी नहीं आता था वह. मैंने कहा- "ईश्वर तुम मुझे नहीं जानते लेकिन मेरी मजबूरी समझ सकते हो. मुझे खाना बनाना आता नहीं. पका-पकाया लाता हूँ, वही खाता  हूँ." पर वह बोले जा रहा था - "खरीद लीजिए हरी हैं. एक भी नहीं बिकीं. मोहल्ले में किसी ने नहीं खरीदा. आज मोहल्ले में शादी है.  सभी दावत में शरीक होंगे. इधर मेरी माँ मर गई है. वही बोती, वही उगाती थी सब्जियां. मैंने सोचा आज भर बेच दूं कि फिर इतनी हरी न होगी सब्जियां."

        मुझे दुःख हुआ कि उसने शोक नहीं मनाया और बेचने चला आया सब्जियां. मैंने देखा उसके चेहरे की रंगत उतर रही थी और खतरे में था  सब्जियों का हरापन. उधर चुप थे पर्यावरण विशेषज्ञ और मंत्रीगण. मैं ना करता रहा पर ईश्वर छोड़ गया मेरे घर हरी सब्जियां, फिर वह कभी पैसे लेने नहीं आया. अब भी रखी हैं वे हरी सब्जियां कि जब न होंगी सब्जियां और न होगा ईश्वर, मैं दराज से निकालूँगा सूखी भिन्डी कि कहूँगा था इसमें हरापन, कि था कभी ईश्वर! जिसने शोक मनाया. ईश्वर ने शोक मनाया. ooo

Saturday 9 October 2010

हाय! हमें ईश्वर होना था - राकेश रोहित

कविता
हाय! हमें ईश्वर होना था
- राकेश रोहित

हाय! हमें ईश्वर होना था.
जीवन की सबसे पवित्र प्रार्थना में
अनंत बार दुहराया जाना था इसे
डूब जाना था हमें
अनवरत अभ्यर्थना के शुभ भाव में
घिर जाना था
ईश्वर की अपरिचित गंध में
महसूस करना था
हथेली में छलछलाती
श्रद्धा का रहस्य-भरा अनुभव.

सत्य के शिखर से उठती
आदिम अनुगूंज की तरह
व्याप्त होना था हमें
पर इन सबसे पहले
हाय! हमें ईश्वर होना था.

ईश्वर.
धरती के सारे शब्दों की सुंदरता है इसमें
ईश्वर!
धरती की सबसे छोटी प्रार्थना है यह
ईश्वर?
हाय, नहीं हैं जो हम.

अभिमंत्रित आहूतियों से उठती है
उसकी आसक्ति
पितरों के सुवास की धूम से रचता है
उसका चेहरा
जीवन की गरमायी में लहकती है
उसकी ऊष्मा.
वह सब कुछ होना था
हम सब में, हमारे अंदर
थोड़ा-थोड़ा ईश्वर.

सोचो तो जरा
सभ्यता की सारी स्मृतियों में
नहीं है
उनका जिक्र
हाय! जिन्हें ईश्वर होना था.
हाय! हमें ईश्वर होना था.

ईश्वर का सच - राकेश रोहित

कविता
ईश्वर का सच
- राकेश रोहित

मैं समझता हूँ ईश्वर का सच
दुहराई गई कथाओं से सराबोर है
और जो बार-बार चमकता है
आत्मा में ईश्वर
वह केवल आत्मा का होना है.

जीवन के सबसे बेहतर क्षणों में
जब भार नहीं लगता
जीवन का दिन-दिन
और स्वप्नों को डंसती नहीं
अधूरी कामनाएं
तब भी मेरा स्वीकार
आरंभ होता है वैदिक संशय से
अगर अस्तित्वमान है ईश्वर
धरती पर देह धारण कर....

मैं समझता हूँ
सृष्टि की तमाम अँधेरी घाटियों में
केवल
सूनी सभ्यताओं की लकीरें हैं
कि जहां नहीं जाती कविता
वहां कोई नहीं जाता.
सारी प्रार्थनाओं से केवल
आलोकित होते हैं शब्द
कि ईश्वर का सच
ईश्वर को याद कर ईश्वर हो जाना है.

Friday 8 October 2010

मेरा नाम क्या है - राकेश रोहित

लघुकथा
                            मेरा नाम क्या है
                                      - राकेश रोहित
यह एक आम बात थी, उसका एक नाम था. और अकसर वह खुद को अपने उसी नाम से पहचानता था. इसलिए जब मैंने उसे पुकारा वह रुकने से पहले ठिठका, चौंका और चिल्लाया, अरे तुम!
मैं ही था, उसने मेरी ओर देखा और और बात शुरू होने से पहले खत्म होने का सिरा ढूंढने लगी. उसकी अंगुलियां अखबार की तहों से खेलने लगी थीं जो कुछ देर पहले मेरे हाथों में लिपटा था.
अच्छा है सस्ता है... वह बोला, यद्यपि यह कोई विज्ञापक जिंगल्स नहीं था पर उसके चेहरे पर उपभोक्ता की-सी चमक महसूस की जा सकती थी, ...साथ-साथ भविष्यफल भी. देखूं मेरे बारे में क्या लिखा है?
उसकी वैयक्तिकता ने मुझे क्षण- भर आहत किया था पर मैं उबर गया क्योंकि उसका मैं कहना कहीं-न-कहीं मेरे होने से जुड़ा था. तुम्हारी राशि क्या है? मैंने पूछा.
राशि! यहीं कहींयानी नाम का पहला अक्षर लिखा होगा. उसके कहने में एक कायम विश्वास था और फिसलन भरा सत्य.
वहां वैसा कुछ न था. केवल राशियां थीं और कुछ विचार. न कोई नाम, न कोई अक्षर जिनका नाम के साथ जुड़ाव हो. मुझे याद आया मैं उनके यदृच्छ चयन में अपना भविष्य पढ़ा करता था. मैंने उसकी ओर देखा, वह हतप्रभ था पर संभल गया, बात दरअसल है कि लोग अपनी राशियां याद रखते हैं और आजकल तो अपना भविष्य भी, उन्हें कुछ ढूंढने की जरुरत नहीं पड़ती.
लेकिन तुम्हारी राशि क्या है? मैंने उसे कुरेदना चाह और डर गया. पर उसके चेहरे पर मेरे विरुद्ध कुछ भी न था एक रहस्यमयता के सिवा. वह फुसफुसाया, मैं अकसर भूल जाता हूँ, मेरी कोई राशि नहीं है. अजीब बात है न! अजीब.
लेकिन तुम्हारा नाम तो है? मेरे स्वर अंधेरी कंदरा में गूंज रहे थे और भटक गये.
      कौन जानता है? संभव है उसका कोई नाम ही न हो या फिर उसके नाम में हो बारह शब्द या उसका नाम हमारी वर्णमाला के किसी भी अक्षर से शुरू नहीं होता हो कि जिसको लिखना असंभव हो और बोलना कठिन. कौन जानता है? कुछ भी हो सकता है! दावे के साथ तो कुछ भी कहना मुश्किल है. संभव है वह उनमें से हो जिनका नाम तो होता है पर कोई भविष्य नहीं. यह एक आम बात है. ooo

Tuesday 5 October 2010

लांग शॉट - राकेश रोहित

लघुकथा
                               लांग शॉट
                                       -राकेश रोहित

      वह हँसा जबकि इसमें हँसने जैसा कुछ न था. मैंने केवल इतना कहा था, अजीब मुश्किल है टिकट ही नहीं मिल रहा और उसने मुझे भरपूर देखा, मुस्कराया, फिर बोला, फिल्म चल निकली है! इस सूचना में जिज्ञासा जैसा कुछ था यह उसके हाव-भाव से समझना कठिन था पर शब्द घंटियों की तरह बज रहे थे. वह अपनी रौ में बोलता रहा. 
      मेरा क्या जाता था! मुफ्त की फिल्म और सीट की सुविधाजनक स्थिति. पास कुछ शब्द अवश्य बिखर रहे थे आपको यकीन न हो एसिस्टेंट डायरेक्टर मुझसे कह रहा था, ऐसा स्टंट-दृश्य पहली बार किसी फिल्म में आया है. सच कहिये तो मुझको काफी डर लग रहा था- कर पाऊंगा या नहीं. आप जानते हैं यह कितना खतरनाक होता है. कभी-कभी. लेकिन सब कुछ इतनी तेजी में हुआ कि मैं खुद महसूस नहीं सका यानी रोमांच जैसा कुछ. आप समझ रहे हैं! शॉट ओ.के. हुआ तो हीरो ने मेरी पीठ ठोंकी. आप अंदाज नहीं लगा सकते मुझे कितनी खुशी हुई तब. आप अभी देखेंगे कपड़े से लेकर हेयर स्टाइल तक सब हीरो के जैसा है. आप मुझे शायद पहचान नहीं पायें. कैमरा लांग शॉट में हैं न, पर.... और उसके शब्द फुसफुसाकर रह गये. तालियों का एक रेला बह निकला था.

      अँधेरे में उसके हाव-भाव महसूसना काफी कठिन था पर वह जिस तरह चुप पड़ गया था उससे मुझे भय था कि कहीं उसकी भूमिका गुजर न गयी हो. अब एक फिल्म में तो इतने सारे लांग शॉट होते हैं. मुझे क्या मालूम था यह सब एक झटके में होगा. मेरा अभीष्ट उस स्टंटमैन को ठेस पहुंचाने का तो कभी न था पर सामने गीतों के बोल तैरने लगे. मैं नायिका के चेहरे के क्लोजअप बटोरने लगा. ooo

रेखा के इधर-उधर - राकेश रोहित

कविता
रेखा के इधर-उधर
- राकेश रोहित

विश्वास कीजिए
यह रेखा
जो कभी मेरे इधर
कभी मेरे उधर नजर आती है
और कभी
आपके बीच खिंची
जमीन पर बिछ जाती है
मैंने नहीं  खींची.

मैंने नहीं चाही थी
टुकड़ों में बंटी धरती
यानी  इस खूबसूरत दुनिया में ऐसे कोने
जहां हम न हों
पर मुझे लगता है हम
अनुपस्थित हैं
इस रेखा के इर्द-गिर्द
तमाम जगहों पर.

कुछ लोग तो यह भी कहते हैं-
रेखाएं अकसर काल्पनिक होती हैं
और घूमती पृथ्वी को
इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता.
यानी रेखाओं को होना न होना
केवल हमसे है
और जबकि मैं चाहता हूँ
कम-से-कम एक ऐसी रेखा का
अस्तित्व स्वीकारना
जिसके बारे में दावे से कहा जा सके,
यह रेखा मैंने नहीं खींची. 

Sunday 3 October 2010

असंवाद - राकेश रोहित

लघुकथा
                                                         असंवाद
                                - राकेश रोहित 

सुबह का तीखा उजास कमरे को हरारत से भर गया था. चादर में लिपटे दायें हाथ को आहिस्ता से सरकाकर मैं टेबुल पर चाय की प्याली ढूंढने लगा. तभी हाथ से कोई ठंडी चीज टकरायी. एक खटका हुआ. मन मारकर मैं दीवाल के सहारे पीठ टिकाकर  बैठ गया. टेबुल पर सो रही घड़ी सुबह के चार बजा रही थी. मेरा मन कड़वाहट से भर गया. भावना आज भी बैटरी बदलना भूल गयी थी.
नींद तो नहीं आ रही थी पर बेड टी न मिलने के कारन सोने का उपक्रम करने लगा. और पहली बार मुझे अहसास हुआ, जागते हुए सोने का अभिनय करना कितना कठिन होता है. आँखें बंद करने के प्रयास में बार-बार भिंच जाती थीं और पलकों पर सिकुडनें पड़ जाती थीं, मैंने उँगलियों से छू कर देखा. कंपकपाती पलकों से अब ऊबन सी होने लगी थी. टेबुल पर पड़ी घड़ी को सीधा करते हुए मैं उठा. बगलवाले कमरे में  लेटी हुई भावना दीवाल को निहार रही थी. मैं उससे मिलने को प्रस्तुत न था, खिड़की से हट गया.
आज खुद चाय बनाऊंगा, ब्रश करते हुए मैंने सोचा. पर किचन में केतली में चाय पड़ी थी. मैं पानी पी चुके गिलास में भरकर सिप करने लगा. चाय ठंडी हो चुकी थी. क्या हो गया है उसे? मैंने आख़िरी बड़ा घूँट भरते हुए भावना के बारे में सोचा.
बिना किसी शोर-शराबे के मैं बड़ी ख़ामोशी से दफ्तर चला आया, पर लंच लाना भूल गया था. वह शायद अब तक सो रही होगी लंच टाइम में मैंने टेबुल पर अनियमित रेखाएं उकेरते हुए सोचा. किसी ने चाय तक के लिए आफर नहीं किया. मुझे भूख महसूस हो रही थी पर घर जाने की इच्छा नहीं थी. वह सोयी होगी. पर हुआ क्या है उसे? मैंने फिर सोचा.
दफ्तर से लौटकर दरवाजे में चाभी डालता हुआ मैं खुद पर हँस पड़ा. भला अब तक क्या सोयी होगी वह? वह दिन में कभी नहीं सोती. मैंने फिर खिड़की से देखा, वह लेटी हुई थी. मैं रसोई से ब्रेड का बड़ा टुकड़ा मुँह में ठूंसता हुआ काफी सहजता से उसके कमरे में चला आया. दरवाजा सरकाने से शायद कुछ आवाज हुई थी, वह हरकत में  आयी और उठकर बैठ गयी. चेहरा अब भी भावविहीन था ज्यों पहली बार कैमरे के सामने खड़ी हो.
क्या हो गया है तुमको? मेरे स्वर से मेरे साथ-साथ वह भी चौंकी. फिर आहिस्ते से बोली, पिताजी नहीं रहे.
ओह! कहकर मैं खामोश होने वाला था कि याद आया, मरनेवाले से मेरा भी कुछ रिश्ता बनता था. तुमने मुझे बताया नहीं? मैंने संवेदना को आगे सरकाया.
सुबह ही फोन आया था, उसने बोलना आरंभ किया.
सुबह की याद से मुझे खीझ होने लगी थी. तभी मैंने देखा उसकी आँखों में आंसू नहीं थे. माँ के मरने पर तो कितना रोयी थी. अब क्या  हो गया है उसे? मैंने साहस कर पूछ ही लिया, रो रही हो?
उसकी निरीह आँखों ने पहले मुझे देखा और अगले पल अपने अजनबीपन को घुटनों से ढंक लिया. घुटनों पर टिकी उसकी गर्दन हिलती हुई सिसकने का आभास दे रही थी. शायद वह रो रही है, अच्छा ही है, मैंने सोचा. घुटनों से आँखें मलने की कोशिश करते हुए उसने पूछा, कितने बज रहे हैं? स्वर कुछ भींगा था.
चार! मैंने बंद घड़ी की ओर देखा और दूसरे कमरे में आकर उसकी बैटरी बदलने लगा. ooo

समुद्र नहीं है नदी - राकेश रोहित

कविता

समुद्र नहीं है नदी   
         - राकेश रोहित 
(एक)

चाहता तो मैं भी था
शुरू करूँ अपनी कविता
समुद्र से
जो मेरे सामने टंगे फ्रेम  में घहराता है
और तब मुझे
अपना चेहरा  आइने में नजर आता है
पर मुझे याद आयी नदी
जो कल आपना
घुटनों भर परिचय लेकर आयी थी
और मैंने पहली बार देखा था नदी को इतना करीब
कि मैं उससे बचना चाहता था
नहीं, मैं नदी से
उतना अपरिचित भी नहीं था
नदियां तो अकसर
हमसे कुछ फासले पर बहती हैं
और हमारे सपनों में किसी झील  सी आती हैं.

मैं समझ रहा था
कि महसूसा जा सकता है
इस धरती पर नदी का होना.
बात नदी - सी प्यास से
शुरू हो सकती थी
बात नदी की तलाश पर
खत्म हो सकती थी
पर मैं कब चाहता हूँ नदी
अपने इतने पास
जितने पास समुद्र
मेरे सामने टंगे फ्रेम में घहराता है.

(दो)

बचे हुए लोग
किससे पूछेंगे अपना पता!
शायद नदी से
जो तब किसी उदास समुद्र की तरह
भारी जहाजों के मलबे तले
बहती रहेगी खामोश.

शायद तब वे पायेंगे
कोई समुद्र अपने पास
जो दूर,  बहुत दूर,  दूर है अभी
जिसे कभी देखा होगा पिता ने पास से.
कितना भयानक होगा
उस  समुद्र का याद आना
जब पिता पास नहीं होंगे
किसी नदी की तरह.

शायद वे ढूंढेंगे नदी
किसी पहाड़, किसी झरने
किसी अमूर्त कला में
पर कठिन होगा
ढूँढ पाना अपना पता
जब पास नहीं होगी
कोई कविता यह कहती हुई
समुद्र नहीं है नदी,
समुद्र नहीं है नदी.

लोकतंत्र में ईश्वर - राकेश रोहित

कविता

लोकतंत्र में ईश्वर

  - राकेश रोहित


एक आदमी
चूहे की तरह दौड़ता था
अन्न का एक दाना मुँह में भर लेने को विकल.
एक आदमी
केकड़े की तरह खींच रहा था
अपने जैसे दूसरे की टाँग.
एक आदमी
मेंढक की तरह उछल रहा था
कुएँ को पूरी दुनिया समझते हुए.
एक आदमी
शुतुरमुर्ग की तरह सर झुकाए
आँधी को गुज़रने दे रहा था.
एक आदमी
लोमड़ी की तरह न्योत रहा था
सारस को थाली में खाने के लिए.
एक आदमी
बंदर की तरह न्याय कर रहा था
बिल्लियों के बीच रोटी बाँटते हुए.
एक आदमी
शेर की तरह डर रहा था
कुएँ में देखकर अपनी परछाईं.
एक आदमी
टिटहरी की तरह टाँगें उठाए
आकाश को गिरने से रोक रहा था.
एक आदमी
चिड़िया की तरह उड़ रहा था
समझते हुए कि आकाश उसके पंजों के नीचे है.
एक आदमी...!

एक आदमी
जो देख रहा था दूर से यह सब,
मुस्कराता था इन मूर्खताओं को देखकर
वह ईश्वर नहीं था
हमारे ही बीच का आदमी था
जिसे जनतंत्र ने भगवान बना दिया था.

Saturday 2 October 2010

बाज़ार के बारे में कुछ विचार - राकेश रोहित

कविता

बाज़ार के बारे में कुछ विचार
                          - राकेश रोहित

ख़ुशी अब पुरानी ख़ुशी की तरह केवल ख़ुश नहीं करती
अब उसमें थोड़ा रोमांच है, थोड़ा उन्माद
थोड़ी क्रूरता भी.
बाज़ार में चीज़ों के नए अर्थ हैं
और नए दाम भी.
वो चीज़ें जो बिना दाम की हैं
उनको लेकर बाज़ार में
जाहिरा तौर पर असुविधा की स्थिति है.
दरअसल चीज़ों का बिकना
उनकी उपलब्धता की भ्राँति उत्पन्न करता है
यानी यदि ख़ुशी बिक रही है
तो तय है कि आप ख़ुश हैं (नहीं तो आप ख़रीद लें)
और यदि पानी बोतलों में बिक रहा है
तो पेयजल संकट की बात करना
एक राजनीतिक प्रलाप है.
ऐसे में सत्ता के तिलिस्म को समझने के कौशल से बेहतर है
आप बाज़ार में आएँ
जो आपके प्रति उतना ही उदार है
जितने बड़े आप ख़रीदार हैं.

बाज़ार में आम लोगों की इतनी चिन्ता है
कि सब कुछ एक ख़ूबसूरत व्यवस्था की तरह दीखता है
कुछ भी कुरूप नहीं है
इस खुरदरे समय में
और अपनी ख़ूबसूरती से परेशान लड़की!
जो थक चुकी है बाज़ार में अलग-अलग चीज़ें बेचकर
अब ख़ुद को बेच रही है.
यह है उसके चुनाव की स्वतंत्रता
सब कुछ ढक लेती है बाज़ार की विनम्रता.
सारे वाद-विवाद से दूर बाज़ार का एक खुला वादा है
कि कुछ लोगों का हक़ कुछ से ज़्यादा है
और आप किस ओर हैं
यह प्रश्न
आपकी नियति से नहीं आपकी जेब से जुड़ा है.

यदि आप समर्थ हैं
तो आपका स्वागत है उस वैश्विक गाँव में
जो मध्ययुगीन किले की तरह ख़ूबसूरत बनाया जा रहा है
अन्यथा आप स्वतंत्र हैं
अपनी सदी की जाहिल कुरूप दुनिया में रहने को.
बाज़ार वहाँ भी है
सदा  आपकी सेवा में तत्पर
क्योंकि बाज़ार
विचार की तरह नहीं है
जो आपका साथ छोड़ दे.
विचार के अकाल या अंत के दौर में
बाज़ार सर्वव्यापी है, अनंत है.

Friday 1 October 2010

केवल देवताओं का नहीं है स्वर्ग - राकेश रोहित

कविता 

केवल देवताओं का नहीं  है स्वर्ग
                         - राकेश रोहित 

केवल देवताओं का नहीं  है स्वर्ग.

एक  दिन
जब  करते हैं कृपा, महादेव 
रीझती है भोली- भंडारी जनता 
बढ़े चले आते हैं 
वर्जित देव-प्रदेश में 
बिखरे बालों 
और बढ़ी मूँछोंवाले राक्षस.
बेशऊर, असभ्य , उजड्ड, गँवार
होते हैं आरूढ़ रत्नजडित सिंहासन पर.
वरदान के लोकतन्त्र के मारे 
बहिष्कृत होते हैं देवता 
पवित्र, अविनाशी, सुन्दर.
सलोने, सुगढ़, सजीले, नेत्रप्रिय देवता 
स्वर्ग में कितना भाते हैं.

हवाएँ, आग, पानी और ऐसी ही तमाम 
हमारी, आपकी आम जिंदगी की चीजें
उनके वश में हैं 
यद्यपि वे ईश्वर नहीं हैं.
विलासप्रिय हैं देवता, रंग उन्हें भाता है 
राग में डूबे हैं वे, प्रिय है उन्हें गंध 
पर उन्हें नहीं भाता है तप.
पाप से मही डोलती है 
और तप से डोलता है सिंहासन स्वर्ग का.
इंद्र को प्रिय नहीं है तप.

एक दिन वे
जिनका सृष्टि की तमाम चीजों पर नियंत्रण है
हार जाते हैं करके सारे उपाय,
तब सारे निरुपाय देवता
छोड़कर मदालसा अप्सराओं को रंगशाला में
करते हैं विचार
करते हैं प्रार्थना
और अचानक मनुष्य हो जाते हैं
निर्बल, निरीह, दया उपजाते हुए से.

इतने बड़े, इतने महान देवता
ईश्वर के सामने होकर विनीत
मद से चमकते
श्रद्धा से झुके हुए
माँगते हैं देवता होने के सुविधा का लाभ
सदा के लिए.
- कि अब तो बंद हो वरदान का यह सिलसिला
आखिर ये स्वर्ग है
आखिर हम देवता हैं
और हैं  वे राक्षस
वे तो कर देंगे
स्वर्ग की मर्यादा को ही तहस-नहस.

इतनी पवित्र, निर्दोष चिन्ता पर मुस्कराते हैं ईश्वर
समझाते हैं...
कैसे न दें वरदान
अगर तप करते हैं राक्षस
भले वे सत्ता की मोहिनी के वश में
रख दें अपने ही सर पर हाथ.

देवताओं के प्रति करुण हैं ईश्वर
कभी-कभी वे देवताओं के पक्ष में हो जाते हैं
पर अब भी राक्षस जानते हैं
केवल देवताओं का नहीं है स्वर्ग
केवल देवताओं का नहीं है स्वर्ग.