Sunday 20 July 2014

नील कमल की कविता अर्थात कलकत्ता की रगों में दौड़ता बनारस - राकेश रोहित

पुस्तक समीक्षा
नील कमल की कविता अर्थात कलकत्ता की रगों में दौड़ता बनारस
- राकेश रोहित

नील कमल 

ऐसे भी शुरू हो सकती है
पानी की कथा
कि एक लड़की थी
हल्की, नाजुक सी
और एक लड़का था
हवाओं- सा, लहराता,
दोनों डूबे जब आकण्ठ
प्रेम में, तब बना पानी.        (पानी)
युवा कवि नील कमल अपनी पानी शीर्षक कविता की शुरुआत ऐसे करते हैं और आकण्ठ डूबने का मतलब तब समझ में आता है जब समझ में आता है कि कैसे पृथ्वी के सबसे आदिम क्षणों में दो तत्वों के मेल से एक यौगिक बनने की प्रक्रिया शुरू हुई होगी. कैसे हवा में घुला-मिला आक्सीजन हवा से हल्के हाइड्रोजन से मिल कर पानी की तरलता में बदल गया होगा. कुछ ऐसा ही होता है नील कमल के यहाँ जब भाव और  जीवन की लय के समन्वय से कविता  बनती है और तब महसूस होता है वे ठीक ही कहते हैं कि पानी इस सृष्टि पर पहली कविता है.

यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है कवि नील कमल का दूसरा कविता संग्रह है. इससे पहले उनका संग्रह हाथ सुंदर लगते हैं आया था. इस संग्रह में उनकी साठ कविताएँ संकलित हैं. इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए लगता है नील कमल की कविता गहरी निराशा के समय में प्रेम और जीवन के लिए उम्मीद की कविता है. उनकी बेचैनी है कि दुःख लिखने पर नम नहीं होता/ कठिन करेज कोई पहले जैसा और इसलिए वे कहते हैं-
ओ मेरी शापित कविताओं
तुम्हारी मुक्ति के लिए, लो
बुदबुदा रहा हूँ वह मंत्र
जिसे अपने अंतिम हथियार
की तरह बचा रखा था मैंने.           (ओ मेरी शापित कविताओं)
उनकी उम्मीद का यह अप्रतिहत स्वर है जब वे लिखते हैं-
पत्थर के जिन टुकड़ों ने
तराशा सबसे पहले, एक दूसरे को
वहीं से पैदा हुई सृष्टि की सबसे पवित्र आग.

सबसे ज्यादा पकीं जो ईंटें
भट्ठियों में देर तक
उन्हीं की नींव पर उठीं
दुनिया की सबसे खूबसूरत इमारतें.            (सबसे खूबसूरत कविताएँ)
और आश्चर्य नहीं उनकी कविता सबसे कठिन जगहों पर संभव होती है जैसे माचिस के बाहर सोई बारूद की पट्टियों में. वे लिखते हैं-
आप तो जानते ही हैं कि बारूद की जुड़वां पट्टियाँ
माचिस की डिबिया के दाहिने-बाँए सोई हुई गहरी नींद.
ध्यान से देखिए इस  माचिस के डिबिया को
एक बारूद जगाता है दूसरे बारूद को कितने प्यार से
इस प्यार वाली रगड़ में है कविता.              (माचिस)

नील कमल की कविताओं का चाक्षुष बिम्ब- संयोजन बहुत प्रभावित करता है क्योंकि एक समय कविताओं में इसकी बहुलता के बावजूद हाल-फिलहाल की कविताओं में यह लगभग विरल है. संग्रह की शीर्षक कविता में वे इसका बहुत सतर्क और सार्थक प्रयोग करते हैं जब वे लिखते हैं-
सरक रहे हैं
पौरुषपूर्ण तनों के कंधों से
पीतवर्णी उत्तरीय

       ढुलक रही है
अलसाई टहनियों के माथे से
हरी ओढनी
..............
यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है
एक बीतता हुआ सम्वत 
अब जल उठेगा, धरती के कैलेण्डर पर.                                                                       (यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है)
यही विजुअल डिटेल्स उनकी सुबह कविता में भी दिखता है. सुबह होने का अर्थ/ सचमुच बदल जाता है/ जब एक बच्चा कंगारू का/ नभ प्राची की/ थैलीनुमा गोद से/ झांकता है/ उसकी एक ही छलांग में/ चमक जाता है पृथ्वी का/  सुन्दर चेहरा. यह कवि के गहरे प्रेक्षण का ही परिणाम है कि वे डिटेल्स को इतनी बारीकी से पकड़ते हैं. उनकी खासियत है कि वे यह प्रेक्षण बाहर से नहीं करते हैं बल्कि इस पारिस्थितिकी का हिस्सा बन कर एक इनसाइडर की तरह करते हैं. इसी बोध से वे लिखते हैं-
धूल मेरे पाँव चूमती है
धन्य होते हैं पाँव मेरे धूल को चूम कर.
धूल को चुम्बक सा खींचता है
वह पसीना, चमकता हुआ मस्तिष्क पर
जो थकान से भींगी बांहों पर ढुलकता है
धूल से नहा उठता है जब कोई आदमी
एक आभा सी दमकती है
धूल में नहा कर पूरे आदमी बनते हैं हम.      (धूल)
यह कवि की जनपक्षधरता है जो बिना किसी शोर के उसके मूल्य- बोध  और जीवन- दर्शन से जुड़ जाती है. इसलिए वे लिख पाते हैं-
इस सफर में
हे कविता के विलुप्त नागरिक,
तुम्हारी ही ओर से बोलता हूँ
तुम्हारे ही राग को देता हूँ कंठ
तुम्हारे ही दुःख की आग में दहकता हूँ
उल्लसित होता हूँ तुम्हारी ही जय में
तुम्हारी ही पराजय में बिलखता हूँ.       (इस सफर में)

ककून इस संग्रह की लंबी और महत्वपूर्ण कविता है. इस कविता में अंतर्निहित संवेदना मन को गहरे झकझोरती है. कैसे रेशम के अजन्मे कीड़े अपने ककून में ही मार दिये जाते हैं कि कुछ मनुष्यों की जिंदगी रेशम- रेशम हो सके, कविता इसका करुण दस्तावेज है. कैसे सभ्यता का उपयोगिता-आधारित विकास एक वर्ग, एक समूह के शोषण पर टिका हुआ है इसकी मार्मिक पड़ताल यह कविता करती है. संवेदना के निरंतर क्षरण के विरुद्घ यह कविता चेतना की एक आवाज की तरह है.

नील कमल कवि के अलावा कविता के एक समर्थ आलोचक भी हैं. इसलिए उनकी कविताओं में गहरे आत्म- निरीक्षण का स्वर भी दिखता है. उनकी चिंता है कि राजधानी के कवियों के लिए असंभव कुछ भी नहीं है. वे चाँद के चेहरे से पसीना पोछेंगे और जेठ की दुपहरी में कजरी गायेंगे. कवि इसलिए सजग रहने का आग्रह करता हुआ कहता है-
मेरे गुनाहों का हिसाब लेना
कभी दस्तखत न करना एक
बेईमान कवि की बातों पर.       (दस्तखत न करना)

कवि को अपनी परम्परा का गहरा बोध है और उसके विकास की जरूरी समझ. उनकी कविताओं में कई कवियों के नाम आते हैं और वह सप्रयोजन है. त्रिलोचन जी अपनी एक प्रसिद्ध कविता में लिखते हैं, चम्पा काले अक्षर नहीं चीन्हती. नील कमल त्रिलोचन जी की उस चम्पा से संबोधित हो कहते हैं-
कवि तिरलोचन की चम्पा
से हम सब रहते डरे- डरे
जाने कब वो दिन आए जब
कलकत्ते पर बजर गिरे.
..........................
रोटी रोजे हो मजबूरी
तो कलकत्ता बहुत जरूरी
बजर गिरे तो बोलो चम्पा
मजबूरी पर बजर गिरे.           (मजबूरी पर बजर गिरे)
केवल बारह पंक्तियों की यह कविता न केवल एक सुन्दर और प्रभावी कविता है बल्कि इसका एक सुंदर उदाहरण भी है कि कैसे एक वरिष्ठ कवि की कविता हमारी स्मृतियों का हिस्सा बन जाती है और कैसे उन स्मृतियों के उपयोग से एक सजग कवि अपनी परंपरा का विकास करता है. यह कविता बार- बार पढ़े जाने लायक है और कविता में स्मृतियों के प्रयोग और विकास के लिए यह टेक्स्ट- बुक उदाहरण की तरह भी है.

नील कमल की कविताओं की खासियत है उनकी आत्मीयता! यह आत्मीयता एक गहरा जुड़ाव पैदा करती है और यही कारण है कि उनकी कविताओं की गूंज पढ़े जाने के बाद भी मन के अंदर देर तक बनी रहती है. कवि की इस आत्मीयता के पीछे उसका साहस है और शब्दों पर उसका अडिग विश्वास जो उसे उसके जमीनी- बोध से हासिल है. वे अपनी एक कविता में खुद ही लिखते हैं-
मैं काशी के घाटों पर
वृन्दावन की उदासी हूँ,
आँखों में ऑंखें डाले, कविता में
शब्दों का साहस हूँ, और
अन्ततः यह , मेरे प्रिय, कि
कलकत्ता की रगों में दौड़ता
बनारस हूँ.                     (इस सफर में)
कवि के अनुसार यह उसका आत्म वक्तव्य है और सच है उनकी कविता के बारे में इससे बेहतर नहीं कहा जा सकता है. 





पुस्तक परिचय: 
कविता संग्रह 
कवि/ नील कमल 
प्रकाशक: ऋत्विज प्रकाशन 
244, बाँसद्रोणी प्लेस, कोलकाता- 700 070
प्रकाशन वर्ष: 2014, प्रथम संस्करण 
आवरण: कुँवर रवीन्द्र