Saturday 24 September 2011

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित


कथाचर्चा
     हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं
                                                                  - राकेश रोहित
(भाग- 20) (पूर्व से आगे)

        'उद्भावना' रचनात्मक जिद की पत्रिका है और यह इसी का प्रतिफलन है कि वह मुद्दों पर एक विचलन की स्थिति पैदा कर पाती है. यही रचनात्मक जिद असगर वजाहत की आज की रचनाओं में देखी जा सकती है. वे अपनी पूरी कोशिश से आपको स्तब्ध कर सोचने पर विवश करती हैं. और यह अकारण नहीं है कि उद्भावना -24 में असगर वजाहत की बारह रचनाएं हैं. वे सांप्रदायिकता के विविध पहलुओं के अनुप्रस्थ काट का सूक्ष्मता से निरीक्षण करती हैं. गुरु-चेला संवाद असगर वजाहत की चर्चित रचना-कड़ी है और प्रभावी भी, जहां बात बड़ी सहजता से मुद्दों तक पहुँचती है. असगर वजाहत की एक और कहानी नाला (पल-प्रतिपल, अप्रैल-जून 1991) एक अनिवार्य आतंक को सामने करती है कि अपनी चिंताओं के मोर्चे पर हम कितने अकेले हैं. अशोक गुप्ता की ठहर जाओ सोनमुखी (वही) एक बालकोचित भावुक अपील है जो नानी के मौलिक व्यक्तित्व पर पड़ती 
"मुझे लगा जंगलों में रहते हुए आदमी जिंदगी में जो मिलता है उसी को बोते चलता है और धीरे-धीरे दु:खों का एक समानांतर जंगल खड़ा कर लेता है.'' 
हवेली की छाया का प्रतिषेध करती है और इसी बहाने एक वर्ग की मुक्ति की फ़िक्र. मंजूर एहतेशाम की कहानी कड़ी (पहल-40) बताती है कि कारण और परिणाम की दुनिया में हमारी जिंदगी किस तरह अपने भ्रम सहित निष्कर्ष और प्रयोग में गुजर जाती है. शशांक की पूरी रात (वही) मर रही दुनिया में कठिन सपनों के आंतरिक आतंक की कहानी है. भालचन्द्र जोशी की पहाड़ों पर रात (वही) बहुत ही अच्छी कहानी है. बिल्कुल सीधी-सादी कहानी, एक सुलझी गंभीर भाषा जो अनुभव की ईमानदारी से हासिल होती है और जो आदिवासियों के बहाने एक शोषित वर्ग के दुःख को सच्ची पीड़ा से महसूसते हुए कहीं अपने को बचाने या 'जस्टीफाई' करने की कोशिश नहीं करती है. इसे पढ़ना एक गहरे अनुभव से गुजरना है. यह बात कितनी अनुभूत पीड़ा से उपजती है, "मुझे लगा जंगलों में रहते हुए आदमी जिंदगी में जो मिलता है उसी को बोते चलता है और धीरे-धीरे दु:खों का एक समानांतर जंगल खड़ा कर लेता है." 

जंगल और जीवन / राकेश रोहित 

(आगामी पोस्ट में पहल- 42 की कहानियों पर चर्चा)
...जारी