Tuesday 4 November 2014

एक सपना, एक जीवन - राकेश रोहित

कविता
एक सपना, एक जीवन 
- राकेश रोहित 

आदम हव्वा के बच्चे
सीमाहीन धरती पर कैसे निर्बाध भागते होंगे
पृथ्वी को पैरों में चिपकाये
कैसे आकाश की छतरी उठाये
ब्रह्मांड की सैर करता होगा उनका मन?

वो फूल नहीं उनकी किलकारियाँ हैं
जिनको हरियाली ने समेट रखा है अपने आँचल में
उनके लिखे खत
तितलियों की तरह हवा में उड़ रहे हैं!
वे जागते हैं तो
चिडियों के कलरव से भर जाता है आकाश
उषा का रंग लाल हो जाता है
हवा भी उनको इस नाजुकी से छूती है
कि सूर्य का ताप कम हो जाता है।

सो जाते हैं वही बच्चे तो
प्रकृति भी अंधेरे में डूबी
चुप सो जाती है।

एक मन मेरा
रोज रात उनके साथ दौड़ता है
एक मन मेरा
रोज जैसे पिंजरे में जागता है!
क्या किसी ने शीशे का टूटना देखा है
क्या किसी ने शीशे के टूटने की आवाज सुनी है?
किरचों की संभाल का इतिहास
ही क्या सभ्यता का विकास है!

हमारे हाथों में लहू है
हमारे हाथों में कांच
हमारे अंदर एक टूटा हुआ दिन है
हमारे हाथों में एक अधूरा आज!
मैं जिंदगी से भाग कर सपने में जाता हूँ
मैं सपने की तलाश में जिंदगी में आता हूँ।
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो उस सपने को याद कर निरंतर रोता है
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो इससे बेखबर सोता है।


जिसने एक छतरी के नीचे
इतने फूलों को समेट रखा है
मैं बार- बार उसके पास जाता हूँ
उसे मेरे सपने का पता है।
मैं लौट आता हूँ अपने निर्वासन से
आपके पास
आपकी आवाज भी सुनी थी मैंने
आपका भी उस सपने से कोई वास्ता है।

चित्र / के. रवीन्द्र 

14 comments:

  1. Adbhut jivan prakruti swapan ....
    Jivan ko air kya chahiye

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  2. बहुत ख़ूबसूरती से अहसासों को पिरोया है आपने..! बधाई....

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  3. हमारे अंदर एक टूटा हुआ दिन है हमारे हाथों में एक अधूरा आज! मैं जिंदगी से भाग कर सपने में जाता हूँ मैं सपने की तलाश में जिंदगी में आता हूँ।----मर्म स्पर्शी रचना ,सुन्दर बिम्ब ,बधाई .

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  4. ऐसी भावपूर्ण कविता काफी समय बाद नज़र आई है । अच्छा है । ऐसी कविताओं की गहराई महसूस करने में समय तो लगता है । सुन्दर है ।

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  5. बहुत ही भावपूर्ण और गूढ़ अभिव्यक्ति! कितनी भी बार पढ़ूँ , कुछ समझने को बाक़ी रह जाता है

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  6. हाँ ,मेरा भी उस सपने से वास्ता है , हम सबका है , बधाई इस सुंदर कविता के लिए । आप गद्य भी बहुत प्रभावशाली लिखते हैं ।

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  7. कल लिखी हुई ग़ज़ल की दो पंक्तियाँ आपकी इस कविता नाम -
    अभी तो क़ाफ़िला सहरा के पार आया है
    कश्तियाँ खोलो अभी पूरा बहर बाक़ी है
    मेरे हुनर की इसने बानगी ही देखी है
    मुझपे मिटने को अभी पूरा शहर बाक़ी है

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  8. बहुत बढ़िया सर!


    सादर

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  9. बहुत बढ़िया चिंतनपरक रचना ..

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  10. बहुत सुन्दर रचना।
    आप लिखते रहिए।
    --
    आपकी रचना का लिंक हम चर्चा मंच में भी ले लेंगे।

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  11. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (29-11-2014) को "अच्छे दिन कैसे होते हैं?" (चर्चा-1812) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  12. जीवन जब ठहरने सा लगे
    समय पर ताले पड़ने लगे
    तू कविता बन आ जाना
    जब नब्ज़ थमने सी लगे।
    राकेश जी एक नई कोशिश के लिए
    धन्यवाद।

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  13. बहुत सुंदर प्रस्तुति...

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