Sunday 8 June 2014

उन्माद भरे समय में कविता की हमसे है उम्मीद - राकेश रोहित

कविता
उन्माद भरे समय में कविता की हमसे है उम्मीद
 - राकेश रोहित 

बहुत कमजोर स्वर में पुकारती है कविता
उन्माद भरा समय नहीं सुनता उसकी आवाज
हिंसा के विरुद्ध हर बार हारता है मनुष्य
हर बार क्रूरता के ठहाकों से काला पड़ जाता है आकाश।

सभ्यता के हजार दावों के बावजूद
एक शैतान बचा रहता है हमारे अंदर, हमारे बीच
हमारी तरह हँसता-गाता
और समय के कठिन होने पर हमारी तरह चिंता में विलाप करता।

जब मनुष्य दिखता है
नहीं दिखती है उसके भीतर की क्रूरता
और हम उसी के कंधे पर रोते हैं, कह-
हाय यह कितना कठिन समय है!

कविता फर्क नहीं कर पाती इनमें
इतने समभाव से मिलती है वह सबसे
इतनी उम्मीद बचाये रखती है कविता
मनुष्य के मनुष्य होने की!

आँखों में पानी बचाने की बात हम करते रहे
और आँसुओं में भींगती रही आधी आबादी की देह
धरती कभी इतना तेज नहीं घूम पाती कि
अँधेरे में ना डूबा रहे इसका आधा हिस्सा!

रोज शैतानी इच्छाएं नोच रही हैं धरती की देह
रोज हमारे बीच का आदमी कुटिल हँसी हँसता है
कविता कितना बचा सकती है यह प्रलयोन्मुख सृष्टि
जब तक हम रोज लड़ते न रहें अपने अंदर के दानव से!

समाज में अकेले पड़ते मनुष्य को ही
खड़ा होना होगा
अपने अकेलेपन के विरुद्ध
एक युद्ध रोज लड़ने को होना होगा तत्पर
अपने ही बीच छिपे राक्षसों से
इस सचमुच के कठिन समय में
कविता की यही हमसे आखिरी उम्मीद है।

आँसुओं में भींगती रही आधी आबादी की देह / राकेश रोहित