Wednesday 22 July 2015

पीले फूल और फुलचुही चिड़िया - राकेश रोहित

कविता
पीले फूल और फुलचुही चिड़िया
- राकेश रोहित

वो आँखें जो समय के पार देखती हैं
मैं उन आँखों में देखता हूँ।
उसमें बेशुमार फूल खिले हैं
पीले रंग के
और लंबी चोंच वाली एक फुलचुही चिड़िया
उड़ रही है बेफिक्र उन फूलों के बीच।

सपने की तरह सजे इस दृश्य में
कैनवस सा चमकता है रंग
और धूप की तरह खिले फूलों के बीच
संगीत की तरह गूंजती है
चिड़िया की उड़ान
पर उसमें नहीं दिखता कोई मनुष्य!
सृष्टि के पुनःसृजन की संभावना सा
दिखता है जो स्वप्न इस कठिन समय में
उसमें नहीं दिखता कोई मनुष्य!

दुनिया के सारे मनुष्य कहाँ गये
कोई नहीं बताता?
झपक जाती हैं थकी आँखें
और जो जानते हैं समय के पार का सच
वे खामोश हो जाते हैं इस सवाल पर।
सुना है
कभी- कभी वे उठकर रोते हैं आधी रात
और अंधेरे में दिवाल से सट कर बुदबुदाते हैं
हमें तो अब भी नहीं दिखता कोई मनुष्य
जब नन्हीं चिड़ियों के पास फूल नहीं है
और नहीं है फूलों के पास पीला रंग!

इसलिए धरती पर
जब भी मुझे दिखता है पीला फूल
मुझे दुनिया एक जादू की तरह लगती है।
इसलिए मैं चाहता हूँ
सपने देखने वाली आँखों में
दिखती रहे हमेशा फुलचुही चिड़िया
फूलों के बीच
ढेर सारे पीले फूलों के बीच।

पीले फूल और फुलचुही चिड़िया / राकेश रोहित

Friday 10 July 2015

समय के बारे में एक कविता - राकेश रोहित

कविता
समय के बारे में एक कविता
- राकेश रोहित

किसी समय को जानने के कई तरीके हैं
उनमें से एक यह है कि आप जानें
कि कौन सो रहा है
और जाग कौन रहा है?

माँ जानती है जब सो रहा है बच्चा
तो चुपके से चूल्हे पर अदहन चढ़ा देने का
और बासी रोटी
नमक प्याज के साथ गिल लेने का समय है।

बाहर आवारा घूम रहा लड़का
जो फिर- फिर हार जाता है कर नौकरी का जुगाड़
जानता कब पिता के सोने का वक्त है
और कब माँ के जागने का
कि कब उसे प्रवेश करना है पिछले दरवाजे से
अपने ही घर में अनधिकृत
और चुपके से पूछना है
माँ कुछ खाने को है?
इस समय वह कभी माँ का चेहरा नहीं देखता
इस समय माँ कभी उसका चेहरा नहीं देखती
और चाह कर भी बता नहीं पाती
कि जाग रहे हैं पिता अब भी
कि यह पानी का गिलास उन्हीं के लिए है।

पिता को भी पता होता है
कि अब सो गया होगा उनका बेटा
खाकर माँ के हिस्से का भी खाना
जब उठ कर पीते हैं गिलास भर पानी
कहना नहीं भूलते
सो गई क्या?
सोचते हैं कल फिर साहब को कह कर देखें
कुछ तो जुगाड़ लगा दें इस नालायक का!

वैसे पिता को पता है
लाख जतन करें 
साहब को ठीक खबर हो जाती है उनके आने की
चाहे जो भी समय हो
दरबान यही कहता है साहब सो रहे हैं
बहुत दिनों से उनकी इच्छा हो रही है
कि एक दिन दरबान को गले लगाकर बोलें
क्या भाई इस ठेठ दुपहरिया
जब जाग रहे हैं चिरई चुनमुन
और खदक रहा चूल्हे पर अदहन
जब सूरज माथे पर चमक रहा है
तेरे साहब सो रहे हैं?

ऐसे समय जब भरी- दोपहरी सो जाते हैं लोग
लाखों लोग जाग कर इंतजार करते हैं
कि एक दिन सोये हुए लोग
उनके पक्ष में उनके भाग्य का फैसला लिखेंगे
और तब तक वे चिड़ियों को अपने सपनों की कथा कहें!

बच्चे को ठीक पता होता है
कि कब तक सोती रहेगी राजकुमारी
और कब होगा कहानी में राक्षसों का प्रवेश
हर बार नये उत्साह से वे
पुराने राजकुमारों के आगमन पर उल्लसित होते हैं
और हर बार नानी जान जाती है
कि कब बच्चे को नींद आ गयी है!
और एक दिन बच्चे की आँखों का सपना
नानी की आँख में आ जाता है
तब नानी गाने लगती है कोई अनसुना गीत
और कच्ची नींद से जाग कर माँ देखती रहती है
आँख भर नानी की आँख।
इस समय जानना कठिन होता है
कि माँ जाग रही है
या माँ के भीतर कोई छूट गया समय जाग रहा है?

तो दोस्तों,
यह समय जो सोने और जागने वालों से जाना जाता है
इसमें कुछ अद्भुत बातें होती हैं
जैसे सोने वालों के पास नींद नहीं होती
और जागने वालों के पास सपना होता है!

किसी समय को जानने के कई तरीके हैं
उनमें से एक यह है कि आप जानें
कि किसके पास सपने हैं
और सपने चुरा कौन रहा है?

चित्र / के. रवीन्द्र 

Thursday 9 July 2015

कविता नहीं यह - राकेश रोहित

कविता 
कविता नहीं यह
- राकेश रोहित 

मेरे पास नहीं हैं उतनी कविताएँ 
जितने धरती पर अनदेखे अनजाने फूल हैं
आकाश में न गिने गये तारे हैं 
और हैं जीवन में अनगिन दुख!

लौट आता हूँ रोज मैं अपनी भाषा में
तलाशता हुए तुम्हें ऐ मेरी खोई हुई आत्मा
निहारता हूँ परिधान बदलते सच को
निरखता हूँ कैसा है उसका अनिर्वचनीय रूप!

उत्सव करते हैं सूखे फूल और जीर्ण पात
हर बार कहने से रह जाती है भीगे मन की बात
हमने हथेलियों पर बर्फ को पिघलते देखा है 
फिर कौन सदियों की जमी बर्फ के पार से पुकारता है
कि मैं सुनता हूँ उसको
उस तक मेरी आवाज नहीं पहुंचती!

इन अनगिन अनजानी आकाशगंगाओं में 
कोई सृष्टि हमारे स्पर्श की प्रतीक्षा में है 
और हमारी इस दुनिया में कोई सच
अभिव्यक्त होने की बेचैनी से भरा है।

हर पल खिलता कोई फूल
हर दिन जनमता कोई बच्चा
यही कहता है 
हर मौसम- बेमौसम में रंग की तरह खिलो
और भाषाहीन इस दुनिया में निश्शब्द न मिलो!

चित्र / के. रवीन्द्र 

Saturday 4 July 2015

अँधेरी खिड़कियों के अंदर का अँधेरा - राकेश रोहित

पुस्तक समीक्षा / पहला उपन्यास

अँधेरी खिड़कियों के अंदर का अँधेरा
- राकेश रोहित

अनिरुद्ध उमट 

अनिरुद्ध उमट उन रचनाकारों में से हैं जिन्होंने अपने कथा शिल्प को लेकर एक खास पहचान बनायी है पर उनके पहले उपन्यास अँधेरी खिड़कियाँ को पढ़ने से ऐसा लगता है कि उनके रचनाकर्म की खासियत उसका शिल्प नहीं वरन वह अनछुआ कथा-क्षेत्र है जो उनकी रचनात्मकता की पहचान भी है और उसकी ताकत भी विवाह की दैविक अवधारणा को धवस्त कर स्त्री पुरूष को उनकी स्वतंत्र इयत्ता में देखने के अर्थों में यह उपन्यास बोल्ड नहीं है क्योंकि यह विवाह को एक सामाजिक संविदा की तरह स्वीकार करने के उपरांत, सपना और यथार्थ की द्वंद्वात्मकता की पड़ताल करता है

अँधेरी खिड़कियाँ में लेखक ने गोरी मेम का एक रूपक रचा है जो प्यार की दैहिक अभिव्यक्ति है यह एक ऐसा सपना है जो बुढिया और उसके पति दोनों को अपनी जकड़न में लिए है एक तरफ बुढिया का पति उसकी तरफ पीठ कर सोते हुए गोरी मेम की तस्वीर और उसके साथ स्वीमिंग पूल में नहाने का सपना देखते मर जाता है तो दूसरी तरफ बुढिया अपने बूढ़े कंठ में बिसरा दी गयी चहक से याद करती है कि उसकी माँ उसे गोरी मेम कहा करती थी और फिर अपने पति के मरने के बाद वही बुढिया सोचती है कि उसके पति दरअसल गोरी मेम को भी नहीं चाहते थे, वे जानते ही नहीं थे कि उनका चाहना क्या है? बुढिया अंत तक यकीन करना चाहती है कि मरने से एक दिन पहले उसके पति उससे छुपकर उसी की तस्वीर देख रहे थे क्योंकि उन्हें हर काम छुप-छुप कर करने की आदत थी इच्छाओं के भटकाव के बीच यह एक भोली आशा और प्यार को पाने की ललक ही है कि पति के पीठ कर सोने के बाद वह बुढिया भी एक करवट सोती रही ताकि कभी वे अपना चेहरा उसकी ओर करें तो उन्हें उसकी पीठ न मिले कंडीशनिंग की इस प्रक्रिया से बुढिया तभी मुक्त होती है जब उसका पुराना प्रेमी उसकी तलाश करता आता है जिसे वह अब भी गोरी मेम लगती है और इस तरह एक स्त्री के रूप में वह फिर रिड्यूस ही होती है जबकि उस प्रेमी की पत्नी यह पूछते-पूछते मरती है कि क्या सचमुच कोई गोरी मेम की तरह लगती है?

इस तरह समाज की अँधेरी खिड़कियों का जो अँधेरा है वह भयानक और अराजक है जहां एक बुढिया की अदम्य वासना और अतृप्त कामना के जरिए उन स्थितयों की पहचान की गई है जो इनकी कारक हैं और लेखक के मैं का भटकाव इसी सन्दर्भ में है बुढिया अपनी देह में इस तरह घिरी है कि अपने अस्तित्व की पहचान खो बैठी है और अपने भटकाव में इस तरह उलझी है कि वह लेखक से जानना चाहती है कि आधी रात के बाद उसके घर से जो रोने की आवाज आती है वह उसी की है या किसी और की? बुढिया के लिए यह अनस्तित्व से अस्तित्व की यात्रा है, और वह अपनी देह से तभी मुक्त होती है जब वह जान पाती है कि वह गोरी मेम नहीं है विवाह रूपी संस्था में पवित्रता और अराजकता के बीच के अवकाश में प्रेम और वासना के द्वंद्व और उससे जूझ रहे स्त्री-पुरूष की तड़प और खासकर स्त्री की अपनी पहचान की बेचैनी को यह उपन्यास बहुत निर्मम तरीके से सामने रखता है

उपन्यास की बुढिया का चरित्र स्मरणीय है और इन अर्थों में सम्पूर्ण कि अन्य  सारे पात्र उसी के चरित्र से अपनी ऊर्जा ग्रहण करते हैं कहानी कहीं-न-कहीं वह और वे में उलझ जाती है कथ्य की जरूरत से परे जाकर भी जटिलता के प्रति रूझान कई बार कथ्य के विस्तार को बाधित और उसकी संभावना को क्षरित करता है कुछ शब्दों के प्रति लेखक का मोह स्पष्ट झलकता है जैसे पूरे उपन्यास में रोना हे मुक्ति है के अर्थों में गला फाड़ने का प्रयोग सौ से भी अधिक बार हुआ है और यह पढ़ते वक्त बहत खटकता है कुल मिलाकर अँधेरी खिड़कियों के अंदर के अँधेरे की दास्तान को जानने के लिए इस उपन्यास को पढ़ा जाना चाहिए  



पुस्तक परिचय: 
उपन्यास/अनिरुद्ध उमट 
कवि प्रकाशन,
लखोटियों का चौक 
बीकानेर - 334 005
प्रथम संस्करण: 1998
मूल्य: 90 रूपये