Thursday, 9 July 2015

कविता नहीं यह - राकेश रोहित

कविता 
कविता नहीं यह
- राकेश रोहित 

मेरे पास नहीं हैं उतनी कविताएँ 
जितने धरती पर अनदेखे अनजाने फूल हैं
आकाश में न गिने गये तारे हैं 
और हैं जीवन में अनगिन दुख!

लौट आता हूँ रोज मैं अपनी भाषा में
तलाशता हुए तुम्हें ऐ मेरी खोई हुई आत्मा
निहारता हूँ परिधान बदलते सच को
निरखता हूँ कैसा है उसका अनिर्वचनीय रूप!

उत्सव करते हैं सूखे फूल और जीर्ण पात
हर बार कहने से रह जाती है भीगे मन की बात
हमने हथेलियों पर बर्फ को पिघलते देखा है 
फिर कौन सदियों की जमी बर्फ के पार से पुकारता है
कि मैं सुनता हूँ उसको
उस तक मेरी आवाज नहीं पहुंचती!

इन अनगिन अनजानी आकाशगंगाओं में 
कोई सृष्टि हमारे स्पर्श की प्रतीक्षा में है 
और हमारी इस दुनिया में कोई सच
अभिव्यक्त होने की बेचैनी से भरा है।

हर पल खिलता कोई फूल
हर दिन जनमता कोई बच्चा
यही कहता है 
हर मौसम- बेमौसम में रंग की तरह खिलो
और भाषाहीन इस दुनिया में निश्शब्द न मिलो!

चित्र / के. रवीन्द्र 

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शुक्रवार (10-07-2015) को "सुबह सबेरे त्राटक योगा" (चर्चा अंक-2032) (चर्चा अंक- 2032) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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