Saturday 8 August 2015

एक कविता उसके लिए जिसे मैं नहीं जानता हूँ - राकेश रोहित

कविता  
एक कविता उसके लिए जिसे मैं नहीं जानता हूँ
- राकेश रोहित

इस विराट विश्व में
मैं मनुष्य की तरह प्रवेश करता हूँ
31 दिसंबर को रात 11 बजकर 58 मिनट पर
बैठ जाता हूँ डायनासोर के जीवाश्म पर
धीरे- धीरे पैर फैलाता हँ
और कम पड़ने लगती है मेरे सांस लेने की जगह!

सारे बिखरे खिलौनों के बीच
सर उठाये कहीं मेरी क्षुद्रता
हाथों में हवा समेटने की जिद कर रही है
अनजान इससे कि ब्रह्मांड फैल रहा है निरंतर
निर्विकार मेरी निष्फल चेष्टा से!

मैं कागज पर लिखता हूँ उसका नाम
और चमत्कृत होता हूँ
कि जान लिया सृष्टि का अजाना रहस्य
और वह बादलों पर कविता लिखता है
कि झरते हैं हजार मोती
और निखरती हैं धरती की शोख- शर्मीली पत्तियाँ।

विकास के इस चक्र पर अवतरित मैं
सोचता हूँ कि सारी सृष्टि को मेरा इंतजार था
और इधर अबोला किए बैठे हैं मुझसे
खग- मृग, जड़- चेतन!

गर्व से भरा मैं पुकारता हूँ
सुनो मैं श्रेष्ठ हूँ,  अलग हूँ तुम सबसे
मेरे पास है भाषा
मैं लिख सकता हूँ तुम्हारी कहानियाँ
गा सकता हूँ तुम्हारे गीत
उसी में बचोगे तुम मृत्यु के बाद भी!

प्रकृति निर्विकार सुनती है
और चुप रहती है।
फिर एक चिड़िया ने
जो मुझे जानती थी थोड़ा,
चुपके से कहा
हाँ तुम्हारे पास भाषा है
क्योंकि तुम्हें लिखना है आपात- संदेश
जो तुम अंतरिक्ष के अंधेरे कोनों में भेजोगे
अपने बचाव की आखिरी उम्मीद में!
तुम्हें ही लिखना होगा तुम्हारा आर्तनाद
कि कैसे विराट से होड़ में खड़ी हुई तुम्हारी क्षुद्रताएं
कि कैसे प्रगति की दौड़ में तुम न्यौतते रहे
अपने ही अस्तित्व के संकट की स्थितियां
कि कैसे तुमने विनाश को आते देखा और मगन रहे;
सुनो कविता तुम्हारे पास है
और तुम्हारे पास है भाषा
इसलिए संग- संग तुम लिखना
अपना अपराधबोध जरा सा!

चित्र / के. रवीन्द्र 

Saturday 1 August 2015

मुझे ले चल पार - राकेश रोहित

कविता
मुझे ले चल पार
- राकेश रोहित

नाव देखते ही लगता है
जैसे हम डूब गए होते अगर यह नाव नहीं होती
डगमग डोलती है नाव
और संग डोलता है मन
स्मृतियों की एक नदी
में धप्प गिरता है माटी का एक चक्खान
धीरे- धीरे भीगता है सूखी आँखों का कोर!

नाव में शायद हमारे पूर्वजों की स्मृतियां हैं
जब किसी अंधेरी रात वे किनारों की तलाश में थे
और गरज रहा था घन घनघोर
और तभी कोई डर समा गया था
उनके गुणसूत्रों में
और जिसे लेकर पैदा हुई संततियां
जिसे लेकर पैदा हुए हम!
और अब भी नाव को तब देखिए
जब कोई नहीं देख रहा हो
तो ऐसा लगता है कोई बुला रहा है हमें
पूछ रहा है कानों में
जाना है उस पार?

वे सारे मांझी गीत
जिनमें प्रीतम की पुकार है-
जाना है उस पार!
हमें इतना विकल क्यों कर देते हैं
जैसे हाथ से छूट रहा हो प्रेम
कि लहरों के बीच कठिन है जीवन
कि जैसे उस पार कोई सदियों से इंतजार कर रहा है
और जल में डोल रही है
चंचल मन सी नाव!

पहली बार नाव बनाकर
मेरे ही किसी पूर्वज ने देखा होगा स्वप्न
इस अथाह अंधेरे और अतल जल के पार जाने का
और पहली बार उसने गाया होगा गीत
इस निर्जनता के विरुद्ध
किसी खोये प्यार को पा लेने का!
क्या वही पुकार गूंज रही है मेरे अंदर?
क्या वही मन मेरे अंदर कांप रहा है
मेरे थिर शरीर में?

हवा जो छू रही है मुझे
पहले भी इसने छूआ था किसी को
यहीं कहीं इस नीरव में
उसका डर, उसकी सिसकियां
उसका आर्तनाद
सब कुछ कोई भरता है मेरे कानों में!
इस विशाल विश्व के अंधेरे में
बस प्रेम के किसी हारे मन की पुकार गूंज रही है
जैसे डोलता है दीपक अकेला
नाव की छत पर टंगा
जैसे ब्रह्मांड के सूनेपन में
अकेली धरती घूम रही है।
जब सब चुप हैं
मुझको सुना रहा है कोई
अपने मन का छुपा हुआ डर
छूटती है बरसों की दबी रूलाई
जब पुकारता हूँ
मुझे ले चल पार!

मुझे ले चल पार!

मुझे ले चल पार / राकेश रोहित