Tuesday 4 November 2014

एक सपना, एक जीवन - राकेश रोहित

कविता
एक सपना, एक जीवन 
- राकेश रोहित 

आदम हव्वा के बच्चे
सीमाहीन धरती पर कैसे निर्बाध भागते होंगे
पृथ्वी को पैरों में चिपकाये
कैसे आकाश की छतरी उठाये
ब्रह्मांड की सैर करता होगा उनका मन?

वो फूल नहीं उनकी किलकारियाँ हैं
जिनको हरियाली ने समेट रखा है अपने आँचल में
उनके लिखे खत
तितलियों की तरह हवा में उड़ रहे हैं!
वे जागते हैं तो
चिडियों के कलरव से भर जाता है आकाश
उषा का रंग लाल हो जाता है
हवा भी उनको इस नाजुकी से छूती है
कि सूर्य का ताप कम हो जाता है।

सो जाते हैं वही बच्चे तो
प्रकृति भी अंधेरे में डूबी
चुप सो जाती है।

एक मन मेरा
रोज रात उनके साथ दौड़ता है
एक मन मेरा
रोज जैसे पिंजरे में जागता है!
क्या किसी ने शीशे का टूटना देखा है
क्या किसी ने शीशे के टूटने की आवाज सुनी है?
किरचों की संभाल का इतिहास
ही क्या सभ्यता का विकास है!

हमारे हाथों में लहू है
हमारे हाथों में कांच
हमारे अंदर एक टूटा हुआ दिन है
हमारे हाथों में एक अधूरा आज!
मैं जिंदगी से भाग कर सपने में जाता हूँ
मैं सपने की तलाश में जिंदगी में आता हूँ।
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो उस सपने को याद कर निरंतर रोता है
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो इससे बेखबर सोता है।


जिसने एक छतरी के नीचे
इतने फूलों को समेट रखा है
मैं बार- बार उसके पास जाता हूँ
उसे मेरे सपने का पता है।
मैं लौट आता हूँ अपने निर्वासन से
आपके पास
आपकी आवाज भी सुनी थी मैंने
आपका भी उस सपने से कोई वास्ता है।

चित्र / के. रवीन्द्र 

Thursday 9 October 2014

गजब कि अब भी, इसी समय में - राकेश रोहित

कविता
गजब कि अब भी, इसी समय में 
- राकेश रोहित

गजब कि ऐसे समय में रहता हूँ
कि खबर नहीं है उनको
इसी देह में मेरी आत्मा वास करती है।

गेंद की तरह उछलती है मेरी देह
और मन मरियल सीटी की तरह बजता है
हमारी भाषा के सारे विस्मय में नहीं
समाता उनकी क्रीड़ा का कौतुक!
गजब कि इस समय में मुग्धता
नींद का पर्याय है। 
गजब कि आत्मा से परे भी
बचा रहता है देहों का जीवन!

रोज मेरी देह आत्मा को छोड़ कर कहाँ जाती है
रोज क्यों एक संशय मेरे साथ रहता है
रोज दर्शन का एक सवाल उठता है मेरे मन में
आत्मा मुझमें लौटती है
या मैं आत्मा में लौटता हूँ!

क्या हमारा अस्तित्व
धुंधलके में खामोश खड़े
पेड़ों की तरह है
लोग तस्वीर की तरह देखने की कोशिश करते हैं हमें
और मैं अपने अंदर समाये
हजार स्वप्न और असंख्य साँसों के साथ
नेपथ्य में खड़ा
आपके विजय रथ के गुजरने का इंतजार करता हूँ?

कैसे हारे हुए सैनिकों की तरह लौट गयी है इच्छायें,
कैसे उदासियों के पर्चे फड़फड़ा रहे हैं?
कैसे अनगिन तारों के बीच
निस्तब्ध सोयी है पृथ्वी,
कैसे कोई जागता नहीं है
कि सुबह हो जायेगी?

गजब कि ऐसे समय में, अब भी,
तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ है
गजब कि अब भी,
इसी समय में,
कोई कहता है
कोई सुनता है!

चित्र / के. रवीन्द्र

Monday 1 September 2014

ऐसे तो मैं - राकेश रोहित

कविता
ऐसे तो मैं
 - राकेश रोहित

ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ                  
जैसे अचानक भूल गया हूँ तुम्हारा नाम
जैसे याद करना है उसे अभी- के-अभी
पर जैसे छूट रहा है जीभ की पहुँच से
दांत में दबा कोई रेशा
जैसे पानी में डूब- उतरा रही है
किसी बच्चे की गेंद
जैसे सामने खड़ी तुम हँस रही हो
पर नहीं देख रही हो मुझे
कि जैसे तुम्हें पुकारना
है दुनिया का सबसे जरूरी काम!

ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ
जैसे तितलियों के साथ नाच रहे हैं
नंग- धड़ंग बच्चे
और फूल खिलखिलाकर हँस रहे हैं
कि जैसे रंग हवा पर सवार हैं
और मन में कोई मिठास जगी है
कि जैसे वक्त की खुशी
इतनी आदिम पहले कभी नहीं हुई
कि जैसे इससे पहले कभी नहीं लगा
कि कुछ कहने- सुनने से बेहतर है
प्यार किया जाए!

ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ
कि इस बार लिखना है मन के पोर- पोर का दर्द
कि जैसे यह समय फिर नहीं आयेगा
कि जैसे न कह दूं तो कम हो जायेगी
किसी तारे की रोशनी
कि जैसे पृथ्वी ठहर कर मेरी बात सुनती है
कि जैसे बात मेरी खामोशियों से भी बयां हो रही है
कि जैसे जान गये हैं सब यूं ही
क्या है कहने की बात
कि जैसे अब दुविधा मन में नहीं है
कि जैसे कहना है कि अब कहना है!

ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ

चित्र / के. रवीन्द्र 

Monday 11 August 2014

इच्छा, आकाश के आँगन में - राकेश रोहित

कविता 
इच्छा, आकाश के आँगन में
- राकेश रोहित

इच्छा भी थक जाती है
मेरे अंदर रहते- रहते
यह मन तो लगातार भटकता रहता है
आत्मा भी टहल आती है
कभी- कभार बाहर
जब मैं सोया रहता हूँ।

यह बिखराव का समय है
मैं अपने ही भीतर किसी को आवाज देता हूँ
और अपने ही अकेलेपन से डर जाता हूँ।
यह समय ऐसा क्यों लगता है
कि काली अंधेरी सड़क पर
एक बच्चा अकेला खड़ा है?

लोरियों में साहस भरने से
कम नहीं होता बच्चे का भय
खिड़कियां बंद हों तो सारी सडकें जंगल की तरह लगती हैं।
इच्छा ने ही कभी जन्म लिया था मनुष्य की तरह
इच्छाओं ने मनुष्य को अकेला कर दिया है
आत्मा रोज छूती है मेरे भय को
मैं आत्मा को छू नहीं पाता हूँ।

मैं पत्तों के रंग देखना चाहता हूँ
मैं फूलों के शब्द चुनना चाहता हूँ
संशय की खिड़कियां खोल कर देखो मित्र
उजाले के इंतजार में मैं आकाश के आँगन में हूँ।

चित्र / के.  रवीन्द्र 

Saturday 2 August 2014

छतरी के नीचे मुस्कराहट - राकेश रोहित

कविता
छतरी के नीचे मुस्कराहट 
- राकेश रोहित

छतरी के नीचे मुस्कराहट थी
जिसे उस लड़की ने ओढ़ रखा था,
उसकी आँखें बारिश से भींगी थी
और ऐसा लग रहा था जैसे 
भींगी धरती पर बहुत से गुलाबी फूल खिले हों!

जैसे पलकों की ओट में
छिपा था उसका मन
वैसे छतरी ने छिपा रखा था
उसके अतीत का अंधेरा।

पतंग की छांव में एक छोटी सी चिड़िया
एक बहुत बड़े सपने के आंगन में खड़ी थी।

चित्र / के.  रवीन्द्र

Sunday 20 July 2014

नील कमल की कविता अर्थात कलकत्ता की रगों में दौड़ता बनारस - राकेश रोहित

पुस्तक समीक्षा
नील कमल की कविता अर्थात कलकत्ता की रगों में दौड़ता बनारस
- राकेश रोहित

नील कमल 

ऐसे भी शुरू हो सकती है
पानी की कथा
कि एक लड़की थी
हल्की, नाजुक सी
और एक लड़का था
हवाओं- सा, लहराता,
दोनों डूबे जब आकण्ठ
प्रेम में, तब बना पानी.        (पानी)
युवा कवि नील कमल अपनी पानी शीर्षक कविता की शुरुआत ऐसे करते हैं और आकण्ठ डूबने का मतलब तब समझ में आता है जब समझ में आता है कि कैसे पृथ्वी के सबसे आदिम क्षणों में दो तत्वों के मेल से एक यौगिक बनने की प्रक्रिया शुरू हुई होगी. कैसे हवा में घुला-मिला आक्सीजन हवा से हल्के हाइड्रोजन से मिल कर पानी की तरलता में बदल गया होगा. कुछ ऐसा ही होता है नील कमल के यहाँ जब भाव और  जीवन की लय के समन्वय से कविता  बनती है और तब महसूस होता है वे ठीक ही कहते हैं कि पानी इस सृष्टि पर पहली कविता है.

यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है कवि नील कमल का दूसरा कविता संग्रह है. इससे पहले उनका संग्रह हाथ सुंदर लगते हैं आया था. इस संग्रह में उनकी साठ कविताएँ संकलित हैं. इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए लगता है नील कमल की कविता गहरी निराशा के समय में प्रेम और जीवन के लिए उम्मीद की कविता है. उनकी बेचैनी है कि दुःख लिखने पर नम नहीं होता/ कठिन करेज कोई पहले जैसा और इसलिए वे कहते हैं-
ओ मेरी शापित कविताओं
तुम्हारी मुक्ति के लिए, लो
बुदबुदा रहा हूँ वह मंत्र
जिसे अपने अंतिम हथियार
की तरह बचा रखा था मैंने.           (ओ मेरी शापित कविताओं)
उनकी उम्मीद का यह अप्रतिहत स्वर है जब वे लिखते हैं-
पत्थर के जिन टुकड़ों ने
तराशा सबसे पहले, एक दूसरे को
वहीं से पैदा हुई सृष्टि की सबसे पवित्र आग.

सबसे ज्यादा पकीं जो ईंटें
भट्ठियों में देर तक
उन्हीं की नींव पर उठीं
दुनिया की सबसे खूबसूरत इमारतें.            (सबसे खूबसूरत कविताएँ)
और आश्चर्य नहीं उनकी कविता सबसे कठिन जगहों पर संभव होती है जैसे माचिस के बाहर सोई बारूद की पट्टियों में. वे लिखते हैं-
आप तो जानते ही हैं कि बारूद की जुड़वां पट्टियाँ
माचिस की डिबिया के दाहिने-बाँए सोई हुई गहरी नींद.
ध्यान से देखिए इस  माचिस के डिबिया को
एक बारूद जगाता है दूसरे बारूद को कितने प्यार से
इस प्यार वाली रगड़ में है कविता.              (माचिस)

नील कमल की कविताओं का चाक्षुष बिम्ब- संयोजन बहुत प्रभावित करता है क्योंकि एक समय कविताओं में इसकी बहुलता के बावजूद हाल-फिलहाल की कविताओं में यह लगभग विरल है. संग्रह की शीर्षक कविता में वे इसका बहुत सतर्क और सार्थक प्रयोग करते हैं जब वे लिखते हैं-
सरक रहे हैं
पौरुषपूर्ण तनों के कंधों से
पीतवर्णी उत्तरीय

       ढुलक रही है
अलसाई टहनियों के माथे से
हरी ओढनी
..............
यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है
एक बीतता हुआ सम्वत 
अब जल उठेगा, धरती के कैलेण्डर पर.                                                                       (यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है)
यही विजुअल डिटेल्स उनकी सुबह कविता में भी दिखता है. सुबह होने का अर्थ/ सचमुच बदल जाता है/ जब एक बच्चा कंगारू का/ नभ प्राची की/ थैलीनुमा गोद से/ झांकता है/ उसकी एक ही छलांग में/ चमक जाता है पृथ्वी का/  सुन्दर चेहरा. यह कवि के गहरे प्रेक्षण का ही परिणाम है कि वे डिटेल्स को इतनी बारीकी से पकड़ते हैं. उनकी खासियत है कि वे यह प्रेक्षण बाहर से नहीं करते हैं बल्कि इस पारिस्थितिकी का हिस्सा बन कर एक इनसाइडर की तरह करते हैं. इसी बोध से वे लिखते हैं-
धूल मेरे पाँव चूमती है
धन्य होते हैं पाँव मेरे धूल को चूम कर.
धूल को चुम्बक सा खींचता है
वह पसीना, चमकता हुआ मस्तिष्क पर
जो थकान से भींगी बांहों पर ढुलकता है
धूल से नहा उठता है जब कोई आदमी
एक आभा सी दमकती है
धूल में नहा कर पूरे आदमी बनते हैं हम.      (धूल)
यह कवि की जनपक्षधरता है जो बिना किसी शोर के उसके मूल्य- बोध  और जीवन- दर्शन से जुड़ जाती है. इसलिए वे लिख पाते हैं-
इस सफर में
हे कविता के विलुप्त नागरिक,
तुम्हारी ही ओर से बोलता हूँ
तुम्हारे ही राग को देता हूँ कंठ
तुम्हारे ही दुःख की आग में दहकता हूँ
उल्लसित होता हूँ तुम्हारी ही जय में
तुम्हारी ही पराजय में बिलखता हूँ.       (इस सफर में)

ककून इस संग्रह की लंबी और महत्वपूर्ण कविता है. इस कविता में अंतर्निहित संवेदना मन को गहरे झकझोरती है. कैसे रेशम के अजन्मे कीड़े अपने ककून में ही मार दिये जाते हैं कि कुछ मनुष्यों की जिंदगी रेशम- रेशम हो सके, कविता इसका करुण दस्तावेज है. कैसे सभ्यता का उपयोगिता-आधारित विकास एक वर्ग, एक समूह के शोषण पर टिका हुआ है इसकी मार्मिक पड़ताल यह कविता करती है. संवेदना के निरंतर क्षरण के विरुद्घ यह कविता चेतना की एक आवाज की तरह है.

नील कमल कवि के अलावा कविता के एक समर्थ आलोचक भी हैं. इसलिए उनकी कविताओं में गहरे आत्म- निरीक्षण का स्वर भी दिखता है. उनकी चिंता है कि राजधानी के कवियों के लिए असंभव कुछ भी नहीं है. वे चाँद के चेहरे से पसीना पोछेंगे और जेठ की दुपहरी में कजरी गायेंगे. कवि इसलिए सजग रहने का आग्रह करता हुआ कहता है-
मेरे गुनाहों का हिसाब लेना
कभी दस्तखत न करना एक
बेईमान कवि की बातों पर.       (दस्तखत न करना)

कवि को अपनी परम्परा का गहरा बोध है और उसके विकास की जरूरी समझ. उनकी कविताओं में कई कवियों के नाम आते हैं और वह सप्रयोजन है. त्रिलोचन जी अपनी एक प्रसिद्ध कविता में लिखते हैं, चम्पा काले अक्षर नहीं चीन्हती. नील कमल त्रिलोचन जी की उस चम्पा से संबोधित हो कहते हैं-
कवि तिरलोचन की चम्पा
से हम सब रहते डरे- डरे
जाने कब वो दिन आए जब
कलकत्ते पर बजर गिरे.
..........................
रोटी रोजे हो मजबूरी
तो कलकत्ता बहुत जरूरी
बजर गिरे तो बोलो चम्पा
मजबूरी पर बजर गिरे.           (मजबूरी पर बजर गिरे)
केवल बारह पंक्तियों की यह कविता न केवल एक सुन्दर और प्रभावी कविता है बल्कि इसका एक सुंदर उदाहरण भी है कि कैसे एक वरिष्ठ कवि की कविता हमारी स्मृतियों का हिस्सा बन जाती है और कैसे उन स्मृतियों के उपयोग से एक सजग कवि अपनी परंपरा का विकास करता है. यह कविता बार- बार पढ़े जाने लायक है और कविता में स्मृतियों के प्रयोग और विकास के लिए यह टेक्स्ट- बुक उदाहरण की तरह भी है.

नील कमल की कविताओं की खासियत है उनकी आत्मीयता! यह आत्मीयता एक गहरा जुड़ाव पैदा करती है और यही कारण है कि उनकी कविताओं की गूंज पढ़े जाने के बाद भी मन के अंदर देर तक बनी रहती है. कवि की इस आत्मीयता के पीछे उसका साहस है और शब्दों पर उसका अडिग विश्वास जो उसे उसके जमीनी- बोध से हासिल है. वे अपनी एक कविता में खुद ही लिखते हैं-
मैं काशी के घाटों पर
वृन्दावन की उदासी हूँ,
आँखों में ऑंखें डाले, कविता में
शब्दों का साहस हूँ, और
अन्ततः यह , मेरे प्रिय, कि
कलकत्ता की रगों में दौड़ता
बनारस हूँ.                     (इस सफर में)
कवि के अनुसार यह उसका आत्म वक्तव्य है और सच है उनकी कविता के बारे में इससे बेहतर नहीं कहा जा सकता है. 





पुस्तक परिचय: 
कविता संग्रह 
कवि/ नील कमल 
प्रकाशक: ऋत्विज प्रकाशन 
244, बाँसद्रोणी प्लेस, कोलकाता- 700 070
प्रकाशन वर्ष: 2014, प्रथम संस्करण 
आवरण: कुँवर रवीन्द्र 

Sunday 8 June 2014

उन्माद भरे समय में कविता की हमसे है उम्मीद - राकेश रोहित

कविता
उन्माद भरे समय में कविता की हमसे है उम्मीद
 - राकेश रोहित 

बहुत कमजोर स्वर में पुकारती है कविता
उन्माद भरा समय नहीं सुनता उसकी आवाज
हिंसा के विरुद्ध हर बार हारता है मनुष्य
हर बार क्रूरता के ठहाकों से काला पड़ जाता है आकाश।

सभ्यता के हजार दावों के बावजूद
एक शैतान बचा रहता है हमारे अंदर, हमारे बीच
हमारी तरह हँसता-गाता
और समय के कठिन होने पर हमारी तरह चिंता में विलाप करता।

जब मनुष्य दिखता है
नहीं दिखती है उसके भीतर की क्रूरता
और हम उसी के कंधे पर रोते हैं, कह-
हाय यह कितना कठिन समय है!

कविता फर्क नहीं कर पाती इनमें
इतने समभाव से मिलती है वह सबसे
इतनी उम्मीद बचाये रखती है कविता
मनुष्य के मनुष्य होने की!

आँखों में पानी बचाने की बात हम करते रहे
और आँसुओं में भींगती रही आधी आबादी की देह
धरती कभी इतना तेज नहीं घूम पाती कि
अँधेरे में ना डूबा रहे इसका आधा हिस्सा!

रोज शैतानी इच्छाएं नोच रही हैं धरती की देह
रोज हमारे बीच का आदमी कुटिल हँसी हँसता है
कविता कितना बचा सकती है यह प्रलयोन्मुख सृष्टि
जब तक हम रोज लड़ते न रहें अपने अंदर के दानव से!

समाज में अकेले पड़ते मनुष्य को ही
खड़ा होना होगा
अपने अकेलेपन के विरुद्ध
एक युद्ध रोज लड़ने को होना होगा तत्पर
अपने ही बीच छिपे राक्षसों से
इस सचमुच के कठिन समय में
कविता की यही हमसे आखिरी उम्मीद है।

आँसुओं में भींगती रही आधी आबादी की देह / राकेश रोहित 

Sunday 18 May 2014

कविता में उसकी आवाज - राकेश रोहित

कविता 
कविता में उसकी आवाज
- राकेश रोहित

वह ऐसी जगह खड़ा था
जहाँ से साफ दिखता था आसमान
पर मुश्किल थी
खड़े होने की जगह नहीं थी उसके पास।

वह नदी नहीं था
कि बह चला तो बहता रहता
वह नहीं था पहाड़
कि हो गया खड़ा तो अड़ा रहता।

कविता में अनायास आए कुछ शब्दों की तरह
वह आ गया था धरती पर
बच्चे की मुस्कान की तरह
उसने जीना सीख लिया था।

बड़ी-बड़ी बातें मैं नहीं जानता, उसने कहा
पर इतना कहूँगा
आकाश इतना बड़ा है तो धरती इतनी छोटी क्यों है?
क्या आपने हथेलियों के नीचे दबा रखी है थोड़ी धरती
क्या आपके मन के अँधेरे कोने में
थोड़ा धरती का अँधेरा भी छुपा बैठा है?

सुनो तो, मैंने कहा
......................!!

नहीं सुनूंगा
आप रोज समझाते हैं एक नयी बात
और रोज मेरी जिंदगी से एक दिन कम हो जाता है
आप ही कहिये कब तक सहूँगा
दो- चार शब्द हैं मेरे पास
वही कहूँगा
पर चुप नहीं रहूँगा!

मैंने तभी उसकी आवाज को
कविता में हजारों फूलों की तरह खिलते देखा
जो हँसने से पहले किसी की इजाजत नहीं लेते। 

उसकी आवाज को हजारों फूलों की तरह खिलते देखा / राकेश रोहित 

Sunday 11 May 2014

एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर - राकेश रोहित

कविता 
एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर
- राकेश रोहित 

हारा हुआ आदमी पनाह के लिए कहाँ जाता है,
कहाँ मिलती है उसे सर टिकाने की जगह?

आपने इतनी माया रच दी है कविता में
कि अचंभे में है अँधेरे में खड़ा आदमी!
आपके कौतुक के लिए वह हँसता है जोर- जोर
आपके इशारे पर सरपट भागता है।

एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर
चमत्कार का अंगोछा झाड़ कर आपकी पीठ पर
कहेगा, कवि जी कविता बहुत हुई
आते हैं हम खेतों से
अब जोतनी का समय है।

एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर / राकेश रोहित 

Friday 2 May 2014

बदलते मनुष्य का रंग विचार की तरह नहीं होता - राकेश रोहित

कविता
बदलते मनुष्य का रंग विचार की तरह नहीं होता
- राकेश रोहित 

यह देखो- हरा, उन्होंने कहा
मैंने देखा वो पत्तियाँ थीं
और मुझे उनमें मिट्टी का रंग दिख रहा था।
ऐसा अक्सर होता है
मुझे बच्चे की हँसी नीले रंग की दिखती है
समंदर की तरह विराट को समेटे
और लोग बार- बार कहते हैं
पर उसकी शर्ट का रंग तो लाल है!

हरे पत्तों में मिट्टी का रंग / राकेश रोहित 

जैसे बदलते मनुष्य का रंग
उसके विचार की तरह नहीं होता
खो गयी चीजों का रंग वही नहीं होता
जो खोने से पहले होता है
जैसे बीजों का रंग वह कुछ और होता है
जो उन्हें फूलों से मिलता है
और वह कुछ और जो मिट्टी में मिलता है।

नीले रंग की हँसी / राकेश रोहित 

इस सदी के बच्चे बहुत विह्वल हैं
वे अपना खेलना छोड़
घने जंगलों में भटक रहे हैं
एक अँधेरे कुंए में खो गयी हैं उनकी सारी गेंद
और बारिश में आसमान की पतंगों का रंग उतर रहा है।

चीजें जिस तेजी से बदल रही हैं
रंग उतनी तेजी से नहीं बदलते
इसलिए खीरे के रंग का साबुन
मुझे खीरा नहीं दिखता
और मैं जब अंधेरे में चूम लेता हूँ
महबूब के होंठ
मैं जानता हूँ प्यार का रंग गुलाबी ही है।

उसकी आँखों में उजली हँसी / राकेश रोहित 


ऐसे ही एक दिन मुझसे पूछा
पीली सलवार वाली लड़की ने
उम्मीद के छोटे-छोटे
कनातों का रंग क्या होगा?
मैं उसकी आँखों में उजली हँसी देख रहा था
उसके कत्थई चेहरे को
मैंने दोनों हाथों में भर कर कहा
ओ लड़की! उनका रंग निश्चय ही
तुम्हारे सपनों की तरह इंद्रधनुषी होगा।

दोनों हाथों में भर कर उसका कत्थई चेहरा / राकेश रोहित 

Sunday 13 April 2014

संवेदनाओं के द्वीप और विभ्रम की उलझनें - राकेश रोहित

पुस्तक समीक्षा / एक नौसिखुआ आलोचक के रफ नोट्स
संवेदनाओं के द्वीप और विभ्रम की उलझनें      
- राकेश रोहित

विमलेश त्रिपाठी 
1.         ‘एक देश और मरे हुए लोग युवा कवि विमलेश त्रिपाठी का दूसरा कविता संग्रह है. पूरा संग्रह पाँच खण्डों में विभाजित है- इस तरह मैं, बिना नाम की नदियाँ, दुःख-सुख का संगीत, कविता नहीं और एक देश और मरे हुए लोग. पाँचों खंड का एक अलग तेवर है और इसे पाँच स्वतंत्र कविता-संग्रह की तरह भी पढ़ा जा सकता है.
2.         ‘इस तरह मैं में कविता की अभिव्यक्ति की उलझनें हैं तो बिना नाम की नदियाँ में कवि के उन आत्मीय संबंधों का संसार है जिससे वह और उसका व्यक्तित्व रचा गया है. दुःख- सुख का संगीत में स्मृति और उम्मीद की कविताएँ हैं. कविता नहीं कवि की आकांक्षाओं की कविता है तो पाँचवां खंड जिसमें संग्रह की शीर्षक कविता भी है कवि द्वारा यथार्थ को समझने की कोशिश है.
3.         विमलेश त्रिपाठी संवेदना के कवि हैं. उनकी संवेदना ओढ़ी हुई नहीं है वरन् वह उनमें संस्कार की तरह विकसित हुई है. गांव और लोक की ललक उनकी कविताओं का मूल स्वर है. इसलिए उनकी कविताओं में जीवन में लगातार छूट रही चीजों के लिए एक बेचैनी स्पष्ट दिखती है और यथार्थ और स्मृति के बीच एक निरंतर आवाजाही संभव होती है.
4.     कवि के अंदर अपने अस्तित्व की बेचैनी और अपने गांव से/ अपनी जड़ों से दूर रहकर शहर में प्रवासी हो जाने का दर्द बार-बार उनकी कविताओं में अभिव्यक्त होता है. यह एक बूढा हांफता गांव है जिसकी याद कवि के मन में ऐसी बसी है कि वह कोलकाता में रहकर भी कोलकाता  का नहीं बन सका. यह जड़ों से कटने की पीड़ा है. यह उस गांव के नष्ट होते जाने का दर्द है जहां कुंए में मिट्टी भरती जा रही है.
5.         कवि की प्रखर संवेदना उसकी कविता को अप्रतिम बनाती है. इसी संवेदना की ताकत से कवि बिना चिड़िया के पैरों में रस्सी बांधे और बिना नोह्पालिश से उसके पंख रंगे, उसे अपना बना लेता है. संवेदना कवि का घर है और जल ही जल चतुर्दिक में उसके आश्रय का द्वीप भी.
      कवि को यह भय है कि जिस तरह दुनिया पक्षियों के माफिक नहीं रही उसी तरह एक दिन उसके रहने लायक भी नहीं रहेगी. पर यह कवि का विश्वास है कि वह कहता है-
      कोई लाख कोशिश कर ले
मैं कहीं जाऊंगा नहीं
रहूँगा मैं इसी पृथ्वी पर
बदले हुए रूप में.
6.         विमलेश त्रिपाठी की कविताओं और उनकी कवि- समझ की यह ताकत है कि वे न केवल मनुष्य के अस्तित्व पर आसन्न खतरों की परख करते हैं वरन् उसके लिए एक निरंतर लड़ाई भी भाषा के स्तर पर लड़ते हैं. और उसके लिए वे खुशी-खुशी पूरे होश-ओ-हवास में मूर्खता का वरण करने को भी तैयार हैं. यहाँ मूर्खता अचानक सहजता का पर्याय बन जाती है. यह कवि का अपने पर विश्वास है. इसलिए वे कहते हैं-
      शब्द और कितने
फलसफे कितने और
इन दो के बीच फंसे
सदियों के आदमी को
निकालो कोई.
कलम बंद करो
मंच से उतरो
चलो इस देश की अंधेरी गलियों में
सुनो उस आदमी की बात
उसको भी बोलने का मौका दो कोई.
यह कविता में विचार और वाद से पहले  मनुष्य की स्थापना है. और इसलिए कवि कह पाता है, जब कभी पुकारता कोई शिद्दत से/ दौड़ता मैं आदमी की तरह पहुँचता जहाँ पहुँचने की बेहद जरूरत.
7.         ‘बहनें कविता एक महाकाव्य की तरह है और इसमें संवेदना का जो पारावार है उसे एक आलेख की सीमा में बांधना कठिन है. पूरी कविता में दुःख का और समाज में स्त्री जाति के प्रति हो रहे अन्याय का मद्धिम स्वर निरंतर गूंजता है और बहनों की कोई भी हँसी उसे ढंक नहीं पाती. यह कविता अपने आप में एक संपूर्ण वक्तव्य है. इसे पढ़ना दुःख के गीलेपन को महसूसना है जिसे हवा आँखों से सुखा देती है पर दिल के अंदर वह हमेशा रिसता रहता है. इसकी एक-एक पंक्ति समाज की आधी आबादी के साथ हमारे समय की नृशंसता का करुण दस्तावेज है. देखें-
इस तरह किसी दूसरे से नहीं जुड़ा था उनका भाग्य
सबका होकर भी रहना था पूरी उम्र अकेले ही
उन्हें अपने भाग्य के साथ.
स्त्री के इसी दुःख की सततता होस्टल की लड़कियां कविता में दिखती है जब कवि कहता है-
वे जीना चाहती हैं तय समय में
अपनी तरह की जिंदगी
जो उन्हें भविष्य में कभी नसीब नहीं होना.
8.         यथार्थ और स्मृतियों के बीच जिस आवाजाही की बात मैंने पहले की है वह तीसरे खंड की कविताओं में साफ है. फिर चाहे वह सपने कविता हो या बहुत जमाने पहले की बारिश या फिर ओझा बाबा को याद करते हुए. कविता नहीं खंड की कविताएँ कवि के आकांक्षाओं की कविता है जहाँ वह अपनी उम्मीद की जड़ें तलाशता है. इसलिए कवि कहता है-
कविता में न भी बच सकें अच्छे शब्द
परवाह नहीं
मुझे सिद्ध कर दिया जाए
एक गुमनाम बेकार कवि.
कविता की बड़ी और तिलस्मी दुनिया के बाहर
बचा सका तो
अपना सब कुछ हारकर
बचा लूँगा आदमी के अंदर सूखती
कोई नदी
मुरझाता अकेला पेड़ कोई.
9.         कविता संग्रह का समर्पण कवि के शब्दों में देश के उन करोड़ों लोगों के लिए है जिनके दिलों में अब भी सपने साँस ले रहे है और संग्रह के शुरुआती पन्ने पर कवि ने मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पंक्तियों को याद किया है-
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम.
                              (गजानन माधव मुक्तिबोध)
10.       संग्रह के पांचवें खंड का नाम है एक देश और मरे हुए लोग जिसमें इसी नाम की एक कविता भी है. चूँकि संग्रह का शीर्षक भी यही है इसलिए मैं मान लेता हूँ कि यह कवि की सबसे प्रिय  कविता है और इससे उसका सबसे अधिक वैचारिक जुड़ाव है.
11.       ‘एक देश और मरे हुए लोग जिसमें कवि का आग्रह है कि हकीकत को कथा की तरह और कथा को हकीकत की तरह सुना जाए, भन्ते को संबोधित है. इस कविता में एक ऐसे राज्य का रूपक है जिसमें मंत्री, उसके कुनबे और जनता सब मरी हुई है पर राजा जिंदा है और मरी हुई जनता के बीच पहुँचाना चाहता है रोशनियाँ! मैंने इसको कई बार समझने की कोशिश की कि मुक्तिबोध की जिन पंक्तियों को कवि ने संग्रह में उद्धृत किया है उसमें देश मर जाता है और लोग बचे रहते हैं पर विमलेश जी की कविता में देश बचा है और लोग मरे हुए! अब क्या है यह? यथार्थ का अंतर्विरोध या कविता का विकास? इन मरे हुए लोगों के बीच कवि, लेखक कलाकार आदि कुछ ही लोग जीवित हैं. लोकधर्मी कवि की इस हठात आत्ममुग्धता का कारण क्या है? यह कौन सा यथार्थ है और कौन सा रूपक? जहां राजा जीवित है और तंत्र मरा हुआ! क्या है यह? बुराई का अमूर्तन? और आश्चर्य कि इस अमूर्तन को रचने वाली एक मशीन है जो बाहर से  आयात की गयी है जो जीवितों को लगातार मुर्दों में तब्दील  करती है. यानी यहाँ अमानवीकरण  एक प्रक्रिया नहीं है वरन् बाहर से आयातित है.
      यहाँ कवि जो पूरी जनता के मरे होने का रूपक बांधता है क्या यह कवि की हताशा है? क्या यह वही कवि है जो इसी संग्रह में अपनी अंकुर के लिए कविता में कहता है,
मेरे बच्चे मुझ पर नहीं
अपनी माँ पर नहीं
किसी ईश्वर पर भी नहीं
भरोसा रखना इस देश के करोड़ों लोगों पर
जो सब कुछ सहकर भी रहते हैं जिंदा.
तो ये करोड़ों लोग जो विमलेश त्रिपाठी की कविता में हर शर्त पर जिंदा रहते हैं अचानक मुर्दों में कैसे तब्दील हो गये? क्या अपने लोगों पर कवि का भरोसा डिग गया है? या यह एक दुस्वप्न  है, एक विभ्रम? इस विभ्रम की स्थिति में इस लोकधर्मी कवि, जो लोक के प्रति अपनी संवेदना से सिक्त है, की उम्मीद सिर्फ कवियों से हैं! और विश्वास कीजिये वैसे कवियों से  जो कवच-कुंडल लेकर महानता के साथ जनमते हैं! पर  विमलेश त्रिपाठी के ही शब्दों में क्या यही कवि अभी जोड़-तोड़ से पुरस्कार पाने में नहीं जुटे हुए थे. यह है विभ्रम की मुश्किलें!
      कवि ने पूरी कविता को एक दुस्वप्न भरे रूपक की तरह रचने की कोशिश की है और इस कोशिश में उसका उस संवेदना से साथ छूट गया है जो कवि की ताकत है. संवेदना से इसी विलगाव के कारण गालियाँ कविता में कवि गाली के पक्ष में तर्क देने लगता है उसे मन्त्र की तरह पवित्र ठहराने लगता है. इस  क्रम में वह गालियों की समाजशास्त्रीय व्याख्या करने से चूक जाता है. वह भूल जाता है कि गालियाँ दी पुरूष को जाती हैं पर होती स्त्रियों के विरुद्ध  हैं कि स्त्रियों के विरूद्ध नृशंसता की यह वही सदियों पुरानी श्रृंखला है विमलेश जी की कविता जिनके खिलाफ है.

12.       ‘एक देश और मरे हुए लोग में कवि की आख़िरी कोशिश उस मशीन की खोज है जो जिंदा लोगों को मुर्दा में तब्दील कर देती है. पर कवि यह भूल जाता है कि राजा इन मशीनों से पहले से थे और कविता भी, जो तब भी मनुष्य के अमानवीयकरण की प्रक्रिया से निरंतर लड़ रही थी. पर विभ्रम की मुश्किलों के बाहर विमलेश जी की कविताओं में संवेदनाओं के जो द्वीप हैं वहाँ जीवन का पर्यावरण सुरक्षित है और अपनी आदिम ऊर्जा से भरा साँस लेता है. 



पुस्तक परिचय:
कविता संग्रह 
कवि/ विमलेश त्रिपाठी 
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, 
एफ -77, सेक्टर 9, रोड नं 11,
करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, 
बाईस गोदाम, जयपुर- 302006  
प्रकाशन वर्ष: 2013, प्रथम संस्करण.

Saturday 5 April 2014

एक कविता नदी के लिए - राकेश रोहित

कविता 
एक कविता नदी के लिए
- राकेश रोहित 

हम सबके जीवन में
नदी की स्मृति होती है
हमारा जीवन
स्मृतियों की नदी है।

नदी खोजते हूए हम
घर से निकल आते हैं
और घर से निकल हम
खोयी हुई एक नदी याद करते हैं।


नदी खोजते हुए हम / घर से निकल आते हैं - राकेश रोहित 

नदी की तलाश में ही कवि निलय उपाध्याय
गंगोत्री से गंगासागर तक हो आए
अब एक नदी उनके साथ चलती है
अब एक नदी उनके अंदर बहती है।

बचपन में कभी
तबीयत से उछाला एक पत्थर*
नदी के साथ बहता है
और
नदी की तलहटी में कोई सिक्का
चुप प्रार्थनाओं से लिपटा पड़ा रहता है।

सभ्यता की शुरुआत में
शायद कोई नदी किनारे रोया था
इसलिए नदी के पास अकेले जाते ही
छूटती है रुलाई
और मन के अंदर
कहीं गहरे दबा प्यार  वहीं याद आता है।

नदी किनारे अचानक 
एक डर हमें भिंगोता है
और गले में घुटता है
कोई अनजाना आर्तनाद


नदी किनारे अचानक / एक डर हमें भिंगोता है - राकेश रोहित 

कुछ गीत जो दुनिया में
अब भी बचे हुए हैं
उनमें नदी की याद है
अब भी नदी की हवा
आकर अचानक छूती है
तो पुरखों के स्पर्श से
सिहरता है मन!

दोस्तों!
इस दुनिया में
जब कोई नहीं होता साथ
एक अकेली नदी हमसे पूछती है -
तुम्हें जाना कहाँ है?


एक अकेली नदी हमसे पूछती है - तुम्हें जाना कहाँ है? / राकेश रोहित
(*एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों - दुष्यंत कुमार)