Sunday 13 April 2014

संवेदनाओं के द्वीप और विभ्रम की उलझनें - राकेश रोहित

पुस्तक समीक्षा / एक नौसिखुआ आलोचक के रफ नोट्स
संवेदनाओं के द्वीप और विभ्रम की उलझनें      
- राकेश रोहित

विमलेश त्रिपाठी 
1.         ‘एक देश और मरे हुए लोग युवा कवि विमलेश त्रिपाठी का दूसरा कविता संग्रह है. पूरा संग्रह पाँच खण्डों में विभाजित है- इस तरह मैं, बिना नाम की नदियाँ, दुःख-सुख का संगीत, कविता नहीं और एक देश और मरे हुए लोग. पाँचों खंड का एक अलग तेवर है और इसे पाँच स्वतंत्र कविता-संग्रह की तरह भी पढ़ा जा सकता है.
2.         ‘इस तरह मैं में कविता की अभिव्यक्ति की उलझनें हैं तो बिना नाम की नदियाँ में कवि के उन आत्मीय संबंधों का संसार है जिससे वह और उसका व्यक्तित्व रचा गया है. दुःख- सुख का संगीत में स्मृति और उम्मीद की कविताएँ हैं. कविता नहीं कवि की आकांक्षाओं की कविता है तो पाँचवां खंड जिसमें संग्रह की शीर्षक कविता भी है कवि द्वारा यथार्थ को समझने की कोशिश है.
3.         विमलेश त्रिपाठी संवेदना के कवि हैं. उनकी संवेदना ओढ़ी हुई नहीं है वरन् वह उनमें संस्कार की तरह विकसित हुई है. गांव और लोक की ललक उनकी कविताओं का मूल स्वर है. इसलिए उनकी कविताओं में जीवन में लगातार छूट रही चीजों के लिए एक बेचैनी स्पष्ट दिखती है और यथार्थ और स्मृति के बीच एक निरंतर आवाजाही संभव होती है.
4.     कवि के अंदर अपने अस्तित्व की बेचैनी और अपने गांव से/ अपनी जड़ों से दूर रहकर शहर में प्रवासी हो जाने का दर्द बार-बार उनकी कविताओं में अभिव्यक्त होता है. यह एक बूढा हांफता गांव है जिसकी याद कवि के मन में ऐसी बसी है कि वह कोलकाता में रहकर भी कोलकाता  का नहीं बन सका. यह जड़ों से कटने की पीड़ा है. यह उस गांव के नष्ट होते जाने का दर्द है जहां कुंए में मिट्टी भरती जा रही है.
5.         कवि की प्रखर संवेदना उसकी कविता को अप्रतिम बनाती है. इसी संवेदना की ताकत से कवि बिना चिड़िया के पैरों में रस्सी बांधे और बिना नोह्पालिश से उसके पंख रंगे, उसे अपना बना लेता है. संवेदना कवि का घर है और जल ही जल चतुर्दिक में उसके आश्रय का द्वीप भी.
      कवि को यह भय है कि जिस तरह दुनिया पक्षियों के माफिक नहीं रही उसी तरह एक दिन उसके रहने लायक भी नहीं रहेगी. पर यह कवि का विश्वास है कि वह कहता है-
      कोई लाख कोशिश कर ले
मैं कहीं जाऊंगा नहीं
रहूँगा मैं इसी पृथ्वी पर
बदले हुए रूप में.
6.         विमलेश त्रिपाठी की कविताओं और उनकी कवि- समझ की यह ताकत है कि वे न केवल मनुष्य के अस्तित्व पर आसन्न खतरों की परख करते हैं वरन् उसके लिए एक निरंतर लड़ाई भी भाषा के स्तर पर लड़ते हैं. और उसके लिए वे खुशी-खुशी पूरे होश-ओ-हवास में मूर्खता का वरण करने को भी तैयार हैं. यहाँ मूर्खता अचानक सहजता का पर्याय बन जाती है. यह कवि का अपने पर विश्वास है. इसलिए वे कहते हैं-
      शब्द और कितने
फलसफे कितने और
इन दो के बीच फंसे
सदियों के आदमी को
निकालो कोई.
कलम बंद करो
मंच से उतरो
चलो इस देश की अंधेरी गलियों में
सुनो उस आदमी की बात
उसको भी बोलने का मौका दो कोई.
यह कविता में विचार और वाद से पहले  मनुष्य की स्थापना है. और इसलिए कवि कह पाता है, जब कभी पुकारता कोई शिद्दत से/ दौड़ता मैं आदमी की तरह पहुँचता जहाँ पहुँचने की बेहद जरूरत.
7.         ‘बहनें कविता एक महाकाव्य की तरह है और इसमें संवेदना का जो पारावार है उसे एक आलेख की सीमा में बांधना कठिन है. पूरी कविता में दुःख का और समाज में स्त्री जाति के प्रति हो रहे अन्याय का मद्धिम स्वर निरंतर गूंजता है और बहनों की कोई भी हँसी उसे ढंक नहीं पाती. यह कविता अपने आप में एक संपूर्ण वक्तव्य है. इसे पढ़ना दुःख के गीलेपन को महसूसना है जिसे हवा आँखों से सुखा देती है पर दिल के अंदर वह हमेशा रिसता रहता है. इसकी एक-एक पंक्ति समाज की आधी आबादी के साथ हमारे समय की नृशंसता का करुण दस्तावेज है. देखें-
इस तरह किसी दूसरे से नहीं जुड़ा था उनका भाग्य
सबका होकर भी रहना था पूरी उम्र अकेले ही
उन्हें अपने भाग्य के साथ.
स्त्री के इसी दुःख की सततता होस्टल की लड़कियां कविता में दिखती है जब कवि कहता है-
वे जीना चाहती हैं तय समय में
अपनी तरह की जिंदगी
जो उन्हें भविष्य में कभी नसीब नहीं होना.
8.         यथार्थ और स्मृतियों के बीच जिस आवाजाही की बात मैंने पहले की है वह तीसरे खंड की कविताओं में साफ है. फिर चाहे वह सपने कविता हो या बहुत जमाने पहले की बारिश या फिर ओझा बाबा को याद करते हुए. कविता नहीं खंड की कविताएँ कवि के आकांक्षाओं की कविता है जहाँ वह अपनी उम्मीद की जड़ें तलाशता है. इसलिए कवि कहता है-
कविता में न भी बच सकें अच्छे शब्द
परवाह नहीं
मुझे सिद्ध कर दिया जाए
एक गुमनाम बेकार कवि.
कविता की बड़ी और तिलस्मी दुनिया के बाहर
बचा सका तो
अपना सब कुछ हारकर
बचा लूँगा आदमी के अंदर सूखती
कोई नदी
मुरझाता अकेला पेड़ कोई.
9.         कविता संग्रह का समर्पण कवि के शब्दों में देश के उन करोड़ों लोगों के लिए है जिनके दिलों में अब भी सपने साँस ले रहे है और संग्रह के शुरुआती पन्ने पर कवि ने मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पंक्तियों को याद किया है-
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम.
                              (गजानन माधव मुक्तिबोध)
10.       संग्रह के पांचवें खंड का नाम है एक देश और मरे हुए लोग जिसमें इसी नाम की एक कविता भी है. चूँकि संग्रह का शीर्षक भी यही है इसलिए मैं मान लेता हूँ कि यह कवि की सबसे प्रिय  कविता है और इससे उसका सबसे अधिक वैचारिक जुड़ाव है.
11.       ‘एक देश और मरे हुए लोग जिसमें कवि का आग्रह है कि हकीकत को कथा की तरह और कथा को हकीकत की तरह सुना जाए, भन्ते को संबोधित है. इस कविता में एक ऐसे राज्य का रूपक है जिसमें मंत्री, उसके कुनबे और जनता सब मरी हुई है पर राजा जिंदा है और मरी हुई जनता के बीच पहुँचाना चाहता है रोशनियाँ! मैंने इसको कई बार समझने की कोशिश की कि मुक्तिबोध की जिन पंक्तियों को कवि ने संग्रह में उद्धृत किया है उसमें देश मर जाता है और लोग बचे रहते हैं पर विमलेश जी की कविता में देश बचा है और लोग मरे हुए! अब क्या है यह? यथार्थ का अंतर्विरोध या कविता का विकास? इन मरे हुए लोगों के बीच कवि, लेखक कलाकार आदि कुछ ही लोग जीवित हैं. लोकधर्मी कवि की इस हठात आत्ममुग्धता का कारण क्या है? यह कौन सा यथार्थ है और कौन सा रूपक? जहां राजा जीवित है और तंत्र मरा हुआ! क्या है यह? बुराई का अमूर्तन? और आश्चर्य कि इस अमूर्तन को रचने वाली एक मशीन है जो बाहर से  आयात की गयी है जो जीवितों को लगातार मुर्दों में तब्दील  करती है. यानी यहाँ अमानवीकरण  एक प्रक्रिया नहीं है वरन् बाहर से आयातित है.
      यहाँ कवि जो पूरी जनता के मरे होने का रूपक बांधता है क्या यह कवि की हताशा है? क्या यह वही कवि है जो इसी संग्रह में अपनी अंकुर के लिए कविता में कहता है,
मेरे बच्चे मुझ पर नहीं
अपनी माँ पर नहीं
किसी ईश्वर पर भी नहीं
भरोसा रखना इस देश के करोड़ों लोगों पर
जो सब कुछ सहकर भी रहते हैं जिंदा.
तो ये करोड़ों लोग जो विमलेश त्रिपाठी की कविता में हर शर्त पर जिंदा रहते हैं अचानक मुर्दों में कैसे तब्दील हो गये? क्या अपने लोगों पर कवि का भरोसा डिग गया है? या यह एक दुस्वप्न  है, एक विभ्रम? इस विभ्रम की स्थिति में इस लोकधर्मी कवि, जो लोक के प्रति अपनी संवेदना से सिक्त है, की उम्मीद सिर्फ कवियों से हैं! और विश्वास कीजिये वैसे कवियों से  जो कवच-कुंडल लेकर महानता के साथ जनमते हैं! पर  विमलेश त्रिपाठी के ही शब्दों में क्या यही कवि अभी जोड़-तोड़ से पुरस्कार पाने में नहीं जुटे हुए थे. यह है विभ्रम की मुश्किलें!
      कवि ने पूरी कविता को एक दुस्वप्न भरे रूपक की तरह रचने की कोशिश की है और इस कोशिश में उसका उस संवेदना से साथ छूट गया है जो कवि की ताकत है. संवेदना से इसी विलगाव के कारण गालियाँ कविता में कवि गाली के पक्ष में तर्क देने लगता है उसे मन्त्र की तरह पवित्र ठहराने लगता है. इस  क्रम में वह गालियों की समाजशास्त्रीय व्याख्या करने से चूक जाता है. वह भूल जाता है कि गालियाँ दी पुरूष को जाती हैं पर होती स्त्रियों के विरुद्ध  हैं कि स्त्रियों के विरूद्ध नृशंसता की यह वही सदियों पुरानी श्रृंखला है विमलेश जी की कविता जिनके खिलाफ है.

12.       ‘एक देश और मरे हुए लोग में कवि की आख़िरी कोशिश उस मशीन की खोज है जो जिंदा लोगों को मुर्दा में तब्दील कर देती है. पर कवि यह भूल जाता है कि राजा इन मशीनों से पहले से थे और कविता भी, जो तब भी मनुष्य के अमानवीयकरण की प्रक्रिया से निरंतर लड़ रही थी. पर विभ्रम की मुश्किलों के बाहर विमलेश जी की कविताओं में संवेदनाओं के जो द्वीप हैं वहाँ जीवन का पर्यावरण सुरक्षित है और अपनी आदिम ऊर्जा से भरा साँस लेता है. 



पुस्तक परिचय:
कविता संग्रह 
कवि/ विमलेश त्रिपाठी 
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, 
एफ -77, सेक्टर 9, रोड नं 11,
करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, 
बाईस गोदाम, जयपुर- 302006  
प्रकाशन वर्ष: 2013, प्रथम संस्करण.

Saturday 5 April 2014

एक कविता नदी के लिए - राकेश रोहित

कविता 
एक कविता नदी के लिए
- राकेश रोहित 

हम सबके जीवन में
नदी की स्मृति होती है
हमारा जीवन
स्मृतियों की नदी है।

नदी खोजते हूए हम
घर से निकल आते हैं
और घर से निकल हम
खोयी हुई एक नदी याद करते हैं।


नदी खोजते हुए हम / घर से निकल आते हैं - राकेश रोहित 

नदी की तलाश में ही कवि निलय उपाध्याय
गंगोत्री से गंगासागर तक हो आए
अब एक नदी उनके साथ चलती है
अब एक नदी उनके अंदर बहती है।

बचपन में कभी
तबीयत से उछाला एक पत्थर*
नदी के साथ बहता है
और
नदी की तलहटी में कोई सिक्का
चुप प्रार्थनाओं से लिपटा पड़ा रहता है।

सभ्यता की शुरुआत में
शायद कोई नदी किनारे रोया था
इसलिए नदी के पास अकेले जाते ही
छूटती है रुलाई
और मन के अंदर
कहीं गहरे दबा प्यार  वहीं याद आता है।

नदी किनारे अचानक 
एक डर हमें भिंगोता है
और गले में घुटता है
कोई अनजाना आर्तनाद


नदी किनारे अचानक / एक डर हमें भिंगोता है - राकेश रोहित 

कुछ गीत जो दुनिया में
अब भी बचे हुए हैं
उनमें नदी की याद है
अब भी नदी की हवा
आकर अचानक छूती है
तो पुरखों के स्पर्श से
सिहरता है मन!

दोस्तों!
इस दुनिया में
जब कोई नहीं होता साथ
एक अकेली नदी हमसे पूछती है -
तुम्हें जाना कहाँ है?


एक अकेली नदी हमसे पूछती है - तुम्हें जाना कहाँ है? / राकेश रोहित
(*एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों - दुष्यंत कुमार)