Friday 19 June 2015

एक कविता पेड़ के लिए - राकेश रोहित

कविता
एक कविता पेड़ के लिए
- राकेश रोहित

वह छोटे पत्तों और बड़ी छायाओं वाला पेड़ था
जिसकी छांव में ठहरी थी चंचल हवा
और वहीं टहनियों में फंसी
एक पतंग डोल रही थी!
शायद उतारने की कोशिश में फट गया था
पतंग का किनारा
उलझ गये थे धागे
यद्यपि वहां कोई न था
पर किसी बच्चे की हसरत वहीं शायद
पतंग के गिरने के इंतजार में खड़ी थी
और इन सबसे बेपरवाह था पेड़
मुझे लगा शायद बहुत अकेला है यह पेड़।
पेड़ अकेले क्यों पड़ जाते हैं
और कब दूर होता है उनका अकेलापन?

एक दिन फूलों से भर जाता है पेड़
एक दिन गंध से भर जाती है हवा
एक दिन वर्षा आकर करती है श्रृंगार
एक दिन पके फल का आमंत्रण दे
शर्म से दोहरी हो जाती है टहनियां
एक दिन चिड़िया आकर गाती है कानों में
प्रेमोत्सव का गीत।

जब नर्तन करते हैं पत्ते
और गाती है उन्मत्त हवा पेड़ों की डाली के संग
क्या तब अकेले नहीं होते हैं पेड़
और बस यूं ही ठिठके रहते हैं उदास अपनी जड़ों में
तुम्हारे इंतजार में?

आप पूछ कर देखिए कोई दावे से यह नहीं कहेगा
कि पेड़ तब अकेले नहीं होते हैं
जब वे झूम रहे होते हैं हमारे संग
और जब हमारी शरारतों पर
सहलाते हैं झरते पत्ते हमारी पीठ
कोई आकर खामोश तने पर जब लिखता है एक नाम
और पढ़कर खिलखिलाती हैं कुछ लडकियाँ अनाम!

माँ, कब दूर होता है पेड़ों का अकेलापन
जब उसमें सिमट जाती है तुम्हारी याद
या जब उसके नीचे मैं रोता हूँ तुम्हारी याद में?
यह एक ऐसा सवाल था
जिसके जवाब के इंतजार में मैं भटकता रहा
और मुझे बेचैन करते रहे अकेले पड़ते पेड़।


और एक दिन!
एक दिन जब सारे कछुए जीतकर
समंदर में वापस चले गए
मुझसे अचानक भागते हुए एक खरगोश ने कहा
पेड़ तब अकेले नहीं होते जब उनसे
शुरू होता है कोई गाँव
और जब वहाँ बैठकर कोई सुस्ताता है
पीछे छूट गये संगी के इंतजार में।


हर पेड़ एक कविता है / राकेश रोहित 

Thursday 4 June 2015

सुबह होने से कुछ क्षण पहले की कविता - राकेश रोहित

कविता
सुबह होने से कुछ क्षण पहले की कविता
- राकेश रोहित

उनका अपनी बातों पर जोर है
इतना जोर दे कर कहते हैं
वे अपनी बातों की बात
कि एक दिन अपना ही दुख छोटा लगने लगता है
सस्ती लगने लगती है अपनी ही जान!

अपने मन की ही आवाज को
छुपा लेने की इच्छा होने लगती है
अपना ही जिया हुआ जीवन का पाठ
झूठ लगने लगता है।

...और यह जो बूँद- बूँद
बचाता आया हूँ मैं अपनी घृणा
यह जो समेट कर अपना लाचार दुख
मैं खड़ा हुआ हूँ बमुश्किल
आपके सम्मुख
इसका कोई मतलब नहीं है
क्योंकि आपकी बुद्धिमत्ता
तर्क से ऐसा ही मानती है!

छोड़िये, कुछ नयी बात कीजिए
आपके सिखाये थोड़े ही धड़कती है मेरी सांसें
हम तो जिद के मारे हैं
जो सहते हैं, वो कहते हैं!



चित्र / के. रवीन्द्र

Monday 1 June 2015

घास हरी नहीं है - राकेश रोहित

कविता
घास हरी नहीं है
- राकेश रोहित

घास हरी नहीं है
उसने कहा।
अगली बार उसने जोर दे कर कहा 
घास हरी नहीं है
वस्तुतः यह पीली हो चुकी है।

यह सिर्फ पर्यावरण का मसला नहीं है
यह हमारे सौन्दर्य बोध से भी जुड़ा है
कि हरी होनी चाहिए घास,
उसने फिर कहा
फिर- फिर कहा!

मैंने एक दिन उसे समझाना चाहा
हाँ पीली पड़ गयी है घास 
और पीले पड़ गये हैं फूल भी
इतनी गर्म है हवा 
कि कुम्हला गये हैं पत्ते 
यह बहुत कठिन दिन है 
उनके लिए जो छांव में नहीं हैं।
हाँ, उसने संयत स्वर में कहा इस बार- 
और यह भी देखिए कि घास भी हरी नहीं है!

हे भाई! 
मैंने उसका कंधा पकड़ झकझोरा 
यह घास हर बार 
आपकी दाढ़ी से तिनके की तरह क्यों अटक जाता है?
बस घास है कि आप हैं
हाँ हरी नहीं है घास
पर यह भी तो देखिए कि खतरे में है हरापन
कि तितलियों के घर उजड़ रहे हैं
कि ओस के अटकने की कोई ओट नहीं बची!
आप हर बार एक ही बात क्यों कहते हैं
कि घास हरी नहीं है?

इस बार मेरी चौंकने की बारी थी
वह फुसफुसा रहा था 
जैसे भय से भरा था,
मैं कहता हूँ कि घास हरी नहीं है
क्योंकि मैं कहना चाहता हूँ 
कि पानी नहीं रहा!
पर आपको क्या लगता है 
मैं जिस स्वर से घास के बारे में कह सकता हूँ
क्या उसी स्वर में सवाल कर सकता हूँ 
कि पानी नहीं रहा? 
कि क्यों पानी नहीं रहा?

आपको क्या लगता है?
क्यों यह घास हरी नहीं है?

चित्र / के. रवीन्द्र