कविता
एक कविता पेड़ के लिए
- राकेश रोहित
वह छोटे पत्तों और बड़ी छायाओं वाला पेड़ था
जिसकी छांव में ठहरी थी चंचल हवा
और वहीं टहनियों में फंसी
एक पतंग डोल रही थी!
शायद उतारने की कोशिश में फट गया था
पतंग का किनारा
उलझ गये थे धागे
यद्यपि वहां कोई न था
पर किसी बच्चे की हसरत वहीं शायद
पतंग के गिरने के इंतजार में खड़ी थी
और इन सबसे बेपरवाह था पेड़
मुझे लगा शायद बहुत अकेला है यह पेड़।
पेड़ अकेले क्यों पड़ जाते हैं
और कब दूर होता है उनका अकेलापन?
एक दिन फूलों से भर जाता है पेड़
एक दिन गंध से भर जाती है हवा
एक दिन वर्षा आकर करती है श्रृंगार
एक दिन पके फल का आमंत्रण दे
शर्म से दोहरी हो जाती है टहनियां
एक दिन चिड़िया आकर गाती है कानों में
प्रेमोत्सव का गीत।
जब नर्तन करते हैं पत्ते
और गाती है उन्मत्त हवा पेड़ों की डाली के संग
क्या तब अकेले नहीं होते हैं पेड़
और बस यूं ही ठिठके रहते हैं उदास अपनी जड़ों में
तुम्हारे इंतजार में?
आप पूछ कर देखिए कोई दावे से यह नहीं कहेगा
कि पेड़ तब अकेले नहीं होते हैं
जब वे झूम रहे होते हैं हमारे संग
और जब हमारी शरारतों पर
सहलाते हैं झरते पत्ते हमारी पीठ
कोई आकर खामोश तने पर जब लिखता है एक नाम
और पढ़कर खिलखिलाती हैं कुछ लडकियाँ अनाम!
माँ, कब दूर होता है पेड़ों का अकेलापन
जब उसमें सिमट जाती है तुम्हारी याद
या जब उसके नीचे मैं रोता हूँ तुम्हारी याद में?
यह एक ऐसा सवाल था
जिसके जवाब के इंतजार में मैं भटकता रहा
और मुझे बेचैन करते रहे अकेले पड़ते पेड़।
और एक दिन!
एक दिन जब सारे कछुए जीतकर
समंदर में वापस चले गए
मुझसे अचानक भागते हुए एक खरगोश ने कहा
पेड़ तब अकेले नहीं होते जब उनसे
शुरू होता है कोई गाँव
और जब वहाँ बैठकर कोई सुस्ताता है
पीछे छूट गये संगी के इंतजार में।
हर पेड़ एक कविता है / राकेश रोहित |
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (21-06-2015) को "योगसाधना-तन, मन, आत्मा का शोधन" {चर्चा - 2013} पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
अन्तर्राष्ट्रीय योगदिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteपेड़ और खरगोश का साथ और संगी कछुए का इंतज़ार, बेहतरीन प्रस्तुति !! बेहद भावपूर्ण!!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर.
ReplyDeleteJitna ped zaroori hai utni hi aisi samvedna bhi... Aisee kavitaon par baat honi chahiye. Ekbaargi lgta hai ki alg alg bhaavon ko jodkr yah kavita poori ki gai hai...bura bhi nhi hai bs tootni nhi chahiye kavita. Tuti bhi nhi hai. Ant mein gaanv aur musafir ka aana ise adhik arthvta deta hai. Bdi chhayaon ki jgah ghani chhaya theek rahega...
ReplyDeleteKamal Jeet Choudhary.
सर, शब्द नहीं हैं इतनी खूबसूरत और मन को छू जाने वाली कविता के लिए आप प्रकृति के प्रति पूर्ण समर्पित कवि हैं प्रकृति का आभास जैसे आपमें निहित हैं आप न सिर्फ पेड़ बल्कि उसकी एक टहनी,उसकी पत्तियों पर निहित शिराओं को भी महसूस कर लेते हैं ये कविता वास्तव में एक पेड़ को जीवन दे देती हैं उसे सजीव बना देती हैंइसमें वो सब कुछ हैं जो इंसान जीता हैं एक पेड़ के संग, एक पेड़ जीता हैं प्रकृति के बीच स्वयं को
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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