पुस्तक समीक्षा / पहला उपन्यास
अँधेरी खिड़कियों के अंदर का अँधेरा
- राकेश रोहित
अनिरुद्ध उमट |
अनिरुद्ध
उमट उन रचनाकारों में से हैं जिन्होंने अपने कथा शिल्प को लेकर एक खास पहचान बनायी
है पर उनके पहले उपन्यास ‘अँधेरी खिड़कियाँ’ को पढ़ने से ऐसा लगता है कि उनके रचनाकर्म की खासियत उसका
शिल्प नहीं वरन वह अनछुआ कथा-क्षेत्र है जो उनकी रचनात्मकता की पहचान भी है और
उसकी ताकत भी। विवाह की दैविक अवधारणा
को धवस्त कर स्त्री पुरूष को उनकी स्वतंत्र इयत्ता में देखने के अर्थों में यह
उपन्यास ‘बोल्ड’ नहीं है क्योंकि यह विवाह को एक
सामाजिक संविदा की तरह स्वीकार करने के उपरांत, सपना और यथार्थ की द्वंद्वात्मकता
की पड़ताल करता है।
‘अँधेरी खिड़कियाँ’ में लेखक ने गोरी मेम का एक
रूपक रचा है जो प्यार की दैहिक अभिव्यक्ति है। यह एक ऐसा सपना है जो बुढिया और उसके पति दोनों को अपनी
जकड़न में लिए है। एक तरफ बुढिया का पति
उसकी तरफ पीठ कर सोते हुए गोरी मेम की तस्वीर और उसके साथ स्वीमिंग पूल में नहाने
का सपना देखते मर जाता है तो दूसरी तरफ बुढिया अपने बूढ़े कंठ में बिसरा दी गयी चहक
से याद करती है कि उसकी माँ उसे गोरी मेम कहा करती थी। और फिर अपने पति के मरने के बाद वही बुढिया सोचती है कि
उसके पति दरअसल गोरी मेम को भी नहीं चाहते थे, वे जानते ही नहीं थे कि उनका चाहना
क्या है? बुढिया अंत तक यकीन करना चाहती है कि मरने से एक दिन पहले उसके पति उससे
छुपकर उसी की तस्वीर देख रहे थे क्योंकि उन्हें हर काम छुप-छुप कर करने की आदत थी। इच्छाओं के भटकाव के बीच यह एक भोली आशा और प्यार
को पाने की ललक ही है कि पति के पीठ कर सोने के बाद वह बुढिया भी एक करवट सोती रही
ताकि कभी वे अपना चेहरा उसकी ओर करें तो उन्हें उसकी पीठ न मिले। ‘कंडीशनिंग’ की इस प्रक्रिया से बुढिया तभी मुक्त होती है जब उसका
पुराना प्रेमी उसकी तलाश करता आता है जिसे वह अब भी गोरी मेम लगती है और इस तरह एक
स्त्री के रूप में वह फिर ‘रिड्यूस’ ही होती है जबकि उस प्रेमी की पत्नी यह पूछते-पूछते मरती
है कि क्या सचमुच कोई गोरी मेम की तरह लगती है?
इस तरह समाज
की अँधेरी खिड़कियों का जो अँधेरा है वह भयानक और अराजक है जहां एक बुढिया की अदम्य
वासना और अतृप्त कामना के जरिए उन स्थितयों की पहचान की गई है जो इनकी कारक हैं और
लेखक के ‘मैं’ का भटकाव इसी सन्दर्भ में है। बुढिया अपनी देह में इस तरह घिरी है कि अपने
अस्तित्व की पहचान खो बैठी है और अपने भटकाव में इस तरह उलझी है कि वह लेखक से
जानना चाहती है कि आधी रात के बाद उसके घर से जो रोने की आवाज आती है वह उसी की है
या किसी और की? बुढिया के लिए यह अनस्तित्व से अस्तित्व की यात्रा है, और वह अपनी देह
से तभी मुक्त होती है जब वह जान पाती है कि वह गोरी मेम नहीं है। विवाह रूपी संस्था में पवित्रता और अराजकता के बीच
के अवकाश में प्रेम और वासना के द्वंद्व और उससे जूझ रहे स्त्री-पुरूष की तड़प और
खासकर स्त्री की अपनी पहचान की बेचैनी को यह उपन्यास बहुत निर्मम तरीके से सामने
रखता है।
उपन्यास की
बुढिया का चरित्र स्मरणीय है और इन अर्थों में सम्पूर्ण कि अन्य सारे पात्र उसी के चरित्र से अपनी ऊर्जा ग्रहण
करते हैं। कहानी कहीं-न-कहीं ‘वह’ और ‘वे’ में उलझ जाती है। कथ्य की जरूरत से परे जाकर भी जटिलता के प्रति
रूझान कई बार कथ्य के विस्तार को बाधित और उसकी संभावना को क्षरित करता है। कुछ शब्दों के प्रति लेखक का मोह स्पष्ट झलकता है। जैसे पूरे उपन्यास में रोना हे मुक्ति है के अर्थों
में ‘गला फाड़ने’ का प्रयोग सौ से भी अधिक बार
हुआ है और यह पढ़ते वक्त बहत खटकता है। कुल
मिलाकर अँधेरी खिड़कियों के अंदर के अँधेरे की दास्तान को जानने के लिए इस उपन्यास
को पढ़ा जाना चाहिए।
पुस्तक परिचय:
उपन्यास/अनिरुद्ध उमट
कवि प्रकाशन,
लखोटियों का चौक
बीकानेर - 334 005
प्रथम संस्करण: 1998
मूल्य: 90 रूपये
आपसे अनुरोध है इस उपन्यास के प्रकाशक का नम्बर उपलब्ध कराएं आपकी अति कृपा होगी |
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