कविता
एक कविता उसके लिए
जिसे मैं नहीं जानता हूँ
- राकेश रोहित
इस विराट विश्व में
मैं मनुष्य की तरह प्रवेश करता हूँ
31 दिसंबर को रात 11 बजकर 58 मिनट पर
बैठ जाता हूँ डायनासोर के जीवाश्म पर
धीरे- धीरे पैर फैलाता हँ
और कम पड़ने लगती है मेरे सांस लेने की जगह!
मैं मनुष्य की तरह प्रवेश करता हूँ
31 दिसंबर को रात 11 बजकर 58 मिनट पर
बैठ जाता हूँ डायनासोर के जीवाश्म पर
धीरे- धीरे पैर फैलाता हँ
और कम पड़ने लगती है मेरे सांस लेने की जगह!
सारे बिखरे खिलौनों
के बीच
सर उठाये कहीं मेरी क्षुद्रता
हाथों में हवा समेटने की जिद कर रही है
अनजान इससे कि ब्रह्मांड फैल रहा है निरंतर
निर्विकार मेरी निष्फल चेष्टा से!
सर उठाये कहीं मेरी क्षुद्रता
हाथों में हवा समेटने की जिद कर रही है
अनजान इससे कि ब्रह्मांड फैल रहा है निरंतर
निर्विकार मेरी निष्फल चेष्टा से!
मैं कागज पर लिखता
हूँ उसका नाम
और चमत्कृत होता हूँ
कि जान लिया सृष्टि का अजाना रहस्य
और वह बादलों पर कविता लिखता है
कि झरते हैं हजार मोती
और निखरती हैं धरती की शोख- शर्मीली पत्तियाँ।
और चमत्कृत होता हूँ
कि जान लिया सृष्टि का अजाना रहस्य
और वह बादलों पर कविता लिखता है
कि झरते हैं हजार मोती
और निखरती हैं धरती की शोख- शर्मीली पत्तियाँ।
विकास के इस चक्र
पर अवतरित मैं
सोचता हूँ कि सारी सृष्टि को मेरा इंतजार था
और इधर अबोला किए बैठे हैं मुझसे
खग- मृग, जड़- चेतन!
सोचता हूँ कि सारी सृष्टि को मेरा इंतजार था
और इधर अबोला किए बैठे हैं मुझसे
खग- मृग, जड़- चेतन!
गर्व से भरा मैं पुकारता
हूँ
सुनो मैं श्रेष्ठ हूँ, अलग हूँ तुम सबसे
मेरे पास है भाषा
मैं लिख सकता हूँ तुम्हारी कहानियाँ
गा सकता हूँ तुम्हारे गीत
उसी में बचोगे तुम मृत्यु के बाद भी!
सुनो मैं श्रेष्ठ हूँ, अलग हूँ तुम सबसे
मेरे पास है भाषा
मैं लिख सकता हूँ तुम्हारी कहानियाँ
गा सकता हूँ तुम्हारे गीत
उसी में बचोगे तुम मृत्यु के बाद भी!
प्रकृति निर्विकार
सुनती है
और चुप रहती है।
फिर एक चिड़िया ने
जो मुझे जानती थी थोड़ा,
चुपके से कहा
हाँ तुम्हारे पास भाषा है
क्योंकि तुम्हें लिखना है आपात- संदेश
जो तुम अंतरिक्ष के अंधेरे कोनों में भेजोगे
अपने बचाव की आखिरी उम्मीद में!
तुम्हें ही लिखना होगा तुम्हारा आर्तनाद
कि कैसे विराट से होड़ में खड़ी हुई तुम्हारी क्षुद्रताएं
कि कैसे प्रगति की दौड़ में तुम न्यौतते रहे
अपने ही अस्तित्व के संकट की स्थितियां
कि कैसे तुमने विनाश को आते देखा और मगन रहे;
सुनो कविता तुम्हारे पास है
और तुम्हारे पास है भाषा
इसलिए संग- संग तुम लिखना
अपना अपराध- बोध जरा सा!
और चुप रहती है।
फिर एक चिड़िया ने
जो मुझे जानती थी थोड़ा,
चुपके से कहा
हाँ तुम्हारे पास भाषा है
क्योंकि तुम्हें लिखना है आपात- संदेश
जो तुम अंतरिक्ष के अंधेरे कोनों में भेजोगे
अपने बचाव की आखिरी उम्मीद में!
तुम्हें ही लिखना होगा तुम्हारा आर्तनाद
कि कैसे विराट से होड़ में खड़ी हुई तुम्हारी क्षुद्रताएं
कि कैसे प्रगति की दौड़ में तुम न्यौतते रहे
अपने ही अस्तित्व के संकट की स्थितियां
कि कैसे तुमने विनाश को आते देखा और मगन रहे;
सुनो कविता तुम्हारे पास है
और तुम्हारे पास है भाषा
इसलिए संग- संग तुम लिखना
अपना अपराध- बोध जरा सा!
चित्र / के. रवीन्द्र |
आज के समय का सच !!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-08-2015) को "भारत है गाँवों का देश" (चर्चा अंक-2062) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सच कहा
ReplyDeleteबेशक आज की यही सच्चाई है.
ReplyDeleteThis poem takes us to new horizons.
ReplyDeleteआपकी यह रचना बहुत ही सुन्दर है
ReplyDelete