सात आदमी को छूओ
- राकेश रोहित
यह प्रार्थना का समय था. स्कूलों की घंटियां बज चुकी थीं और बच्चे कतार में खड़े थे. मैंने उन्हें देखा. और मुझे वितृष्णा हुई उस भाव के प्रति जिसमें दुनिया को बचा लेने की गंध थी. तभी मेरे सामने एक छोटा बच्चा आ गया; दबे कदम, धीरे-धीरे. और प्रार्थना होती देख वह असहज हो गया. उसका चेहरा परेशान हो रहा था. वह थोड़ा हटकर एक कोने में खड़ा हो गया, जहां प्रार्थना से अलग एक बच्ची खड़ी थी. बच्ची ने अपने बस्ते को संभाला और उसे देख मुस्कराई. फिर उसने बच्चे से कुछ कहा. बच्चे ने चौंक कर पीछे देखा, पर वहां कोई न था. बच्ची खुश हो गई. उसने अपनी नन्हीं हथेलियों से हल्की ताली बजाई और बोली - " छका दिए, सात आदमी को छूओ... सात आदमी को छूओ!" बच्चा भी अचानक प्रसन्न हो आया था. उसे प्रायश्चित करना था - झूठ को सच समझने का, सात आदमी को छूकर. उसने बच्ची से शुरुआत की और उसे छूकर चिल्लाया- एक! फिर वह दौड़ गया. सामने दो बच्चे कांच की गोली से खेल रहे थे ... दो-तीन, उसने गिना. मैं उनके पास आ रहा था और मुझे लग रहा था जैसे मैं उसे खेल में शामिल हो गया हूँ. एक खुशी मेरे अंदर फूट रही थी. बच्चा सड़क पर इधर-उधर दौड़ रहा था. उसने कागज चुन रहे दो बच्चों को गिना. चार-पांच. अब सड़क पर कोई न था और बच्चा इधर-उधर देखता परेशान हो रहा था. मुझे लगा अब वह मुझे छूएगा और तब केवल एक की कमी रह जाएगी. मैंने अपनी चाल कम कर दी ताकि वह मुझे छू सके. तभी एक लड़का सर पर टोकरी रखे साग बेचता उधर से निकला. उसने उसे छूआ - छ:, और फिर मेरे पीछे दौड़ कर वह मुझे छू कर चिल्लाया - सात! दूर खड़ी बच्ची खिलखिलाकर हँस पडी. एक उत्फुल्लता उसके चेहरे पर थी. सात आदमी को छूओ, उसने तालियां बजाकर कहा. अब यह खेल मुझे जारी रखना था. पर मैं धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था. बच्चे धीरे से कक्षा में लौट रहे थे. और खेल का सिरा मुझ तक खिंचता-खिंचता टूट गया था. एक खिन्नता मेरे आगे खन्न से बिथर गई थी. सामने धूप तेज हो रही थी और एक आवाज अब भी मेरे पीछे थी- सात आदमी को छूओ. ooo
hum jaise-jaise bade hote jate hai ;apne andar ke balpan ko kratim prodta se dhakne ka prayas karte hain.shayad kahani ka patra is hi samasya se grasit hai.
ReplyDeleteसात आदमी को छूओ कहानी में मनुष्य का बढता अकेलापन और उसकी वेदना का बहुत ही अच्छा और संवेदनशील चित्रण हुआ है.- अतीक अनवर
ReplyDeleteजब बच्चे खेलते हैं तो वो न तो उनके सामने कोई धर्म होता है, न धर्म, न अमीर-गरीब और न ही बड़े या छोटे का अंतर होता है. लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हम मर्यादाओं में बंधते चले जाते है. और जीवन को संकीर्ण बना लेते हैं.
ReplyDeleteYah laghukatha nahi humarey jeevan ki vyathha hai. Lagta hai hum apna bachpan, apni masoomiyat kyo kho detey hai itni jaldi,jeevan nadi ki tarah kalkal kalkal kyo nahi bahta, aasman me udney ke pahley hi humarey par kyo kat jaatey hai, jo humey itna pyar kartey thhey vo kaha chaley gaye. Bahut kuchh kah jaati hai ye kahani...
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