कविता
रेखा के इधर-उधर
- राकेश रोहित
विश्वास कीजिए
यह रेखा
जो कभी मेरे इधर
कभी मेरे उधर नजर आती है
और कभी
आपके बीच खिंची
जमीन पर बिछ जाती है
मैंने नहीं खींची.
मैंने नहीं चाही थी
टुकड़ों में बंटी धरती
यानी इस खूबसूरत दुनिया में ऐसे कोने
जहां हम न हों
पर मुझे लगता है हम
अनुपस्थित हैं
इस रेखा के इर्द-गिर्द
तमाम जगहों पर.
कुछ लोग तो यह भी कहते हैं-
रेखाएं अकसर काल्पनिक होती हैं
और घूमती पृथ्वी को
इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता.
यानी रेखाओं को होना न होना
केवल हमसे है
और जबकि मैं चाहता हूँ
कम-से-कम एक ऐसी रेखा का
अस्तित्व स्वीकारना
जिसके बारे में दावे से कहा जा सके,
यह रेखा मैंने नहीं खींची.
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