Sunday, 24 October 2010

खुशबू - राकेश रोहित

 लघुकथा
              खुशबू
                                                                  - राकेश रोहित 


        "मुझे कल गांव जाना होगा," मैंने अपनी पत्नी को सूचना दी.
        "क्यों ? अभी पिछले सप्ताह तो गए थे."
        "हां, पत्रिका के कवर के लिए फूलों के कुछ स्नैप - शॉट लेने हैं."
       "तो, फूलों के लिए गांव जाओगे! मिस डिसूजा के पास तो एक-से-एक प्लास्टिक के फूल हैं - बिल्कुल असली दीखते हैं."
        "हां ठीक ही तो है, तस्वीर से कौन-सी खुशबू आनी है."- मैंने खुद को समझाया जैसे. ooo 

3 comments:

  1. sundar prastuti.sochne ko majboor karti hai ki kaise hum prakrtik sundarta ka vikalp shahri kratimta me dhoodh kar apni budhimatta par prassan ho lete hai.isi lie shayad aaj ka yug bhavnapradhan n rahkar budhipradhan ho gaya hai.

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  2. आपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद. आप आरंभ से इस ब्लॉग के साथ रही हैं और सचमुच आपने हमारे प्रयासों को सही अर्थ दिया है.

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