Saturday 2 October 2010

बाज़ार के बारे में कुछ विचार - राकेश रोहित

कविता

बाज़ार के बारे में कुछ विचार
                          - राकेश रोहित

ख़ुशी अब पुरानी ख़ुशी की तरह केवल ख़ुश नहीं करती
अब उसमें थोड़ा रोमांच है, थोड़ा उन्माद
थोड़ी क्रूरता भी.
बाज़ार में चीज़ों के नए अर्थ हैं
और नए दाम भी.
वो चीज़ें जो बिना दाम की हैं
उनको लेकर बाज़ार में
जाहिरा तौर पर असुविधा की स्थिति है.
दरअसल चीज़ों का बिकना
उनकी उपलब्धता की भ्राँति उत्पन्न करता है
यानी यदि ख़ुशी बिक रही है
तो तय है कि आप ख़ुश हैं (नहीं तो आप ख़रीद लें)
और यदि पानी बोतलों में बिक रहा है
तो पेयजल संकट की बात करना
एक राजनीतिक प्रलाप है.
ऐसे में सत्ता के तिलिस्म को समझने के कौशल से बेहतर है
आप बाज़ार में आएँ
जो आपके प्रति उतना ही उदार है
जितने बड़े आप ख़रीदार हैं.

बाज़ार में आम लोगों की इतनी चिन्ता है
कि सब कुछ एक ख़ूबसूरत व्यवस्था की तरह दीखता है
कुछ भी कुरूप नहीं है
इस खुरदरे समय में
और अपनी ख़ूबसूरती से परेशान लड़की!
जो थक चुकी है बाज़ार में अलग-अलग चीज़ें बेचकर
अब ख़ुद को बेच रही है.
यह है उसके चुनाव की स्वतंत्रता
सब कुछ ढक लेती है बाज़ार की विनम्रता.
सारे वाद-विवाद से दूर बाज़ार का एक खुला वादा है
कि कुछ लोगों का हक़ कुछ से ज़्यादा है
और आप किस ओर हैं
यह प्रश्न
आपकी नियति से नहीं आपकी जेब से जुड़ा है.

यदि आप समर्थ हैं
तो आपका स्वागत है उस वैश्विक गाँव में
जो मध्ययुगीन किले की तरह ख़ूबसूरत बनाया जा रहा है
अन्यथा आप स्वतंत्र हैं
अपनी सदी की जाहिल कुरूप दुनिया में रहने को.
बाज़ार वहाँ भी है
सदा  आपकी सेवा में तत्पर
क्योंकि बाज़ार
विचार की तरह नहीं है
जो आपका साथ छोड़ दे.
विचार के अकाल या अंत के दौर में
बाज़ार सर्वव्यापी है, अनंत है.

1 comment:

  1. बेहद सशक्त अभिव्यक्ति।

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