Sunday, 3 October 2010

असंवाद - राकेश रोहित

लघुकथा
                                                         असंवाद
                                - राकेश रोहित 

सुबह का तीखा उजास कमरे को हरारत से भर गया था. चादर में लिपटे दायें हाथ को आहिस्ता से सरकाकर मैं टेबुल पर चाय की प्याली ढूंढने लगा. तभी हाथ से कोई ठंडी चीज टकरायी. एक खटका हुआ. मन मारकर मैं दीवाल के सहारे पीठ टिकाकर  बैठ गया. टेबुल पर सो रही घड़ी सुबह के चार बजा रही थी. मेरा मन कड़वाहट से भर गया. भावना आज भी बैटरी बदलना भूल गयी थी.
नींद तो नहीं आ रही थी पर बेड टी न मिलने के कारन सोने का उपक्रम करने लगा. और पहली बार मुझे अहसास हुआ, जागते हुए सोने का अभिनय करना कितना कठिन होता है. आँखें बंद करने के प्रयास में बार-बार भिंच जाती थीं और पलकों पर सिकुडनें पड़ जाती थीं, मैंने उँगलियों से छू कर देखा. कंपकपाती पलकों से अब ऊबन सी होने लगी थी. टेबुल पर पड़ी घड़ी को सीधा करते हुए मैं उठा. बगलवाले कमरे में  लेटी हुई भावना दीवाल को निहार रही थी. मैं उससे मिलने को प्रस्तुत न था, खिड़की से हट गया.
आज खुद चाय बनाऊंगा, ब्रश करते हुए मैंने सोचा. पर किचन में केतली में चाय पड़ी थी. मैं पानी पी चुके गिलास में भरकर सिप करने लगा. चाय ठंडी हो चुकी थी. क्या हो गया है उसे? मैंने आख़िरी बड़ा घूँट भरते हुए भावना के बारे में सोचा.
बिना किसी शोर-शराबे के मैं बड़ी ख़ामोशी से दफ्तर चला आया, पर लंच लाना भूल गया था. वह शायद अब तक सो रही होगी लंच टाइम में मैंने टेबुल पर अनियमित रेखाएं उकेरते हुए सोचा. किसी ने चाय तक के लिए आफर नहीं किया. मुझे भूख महसूस हो रही थी पर घर जाने की इच्छा नहीं थी. वह सोयी होगी. पर हुआ क्या है उसे? मैंने फिर सोचा.
दफ्तर से लौटकर दरवाजे में चाभी डालता हुआ मैं खुद पर हँस पड़ा. भला अब तक क्या सोयी होगी वह? वह दिन में कभी नहीं सोती. मैंने फिर खिड़की से देखा, वह लेटी हुई थी. मैं रसोई से ब्रेड का बड़ा टुकड़ा मुँह में ठूंसता हुआ काफी सहजता से उसके कमरे में चला आया. दरवाजा सरकाने से शायद कुछ आवाज हुई थी, वह हरकत में  आयी और उठकर बैठ गयी. चेहरा अब भी भावविहीन था ज्यों पहली बार कैमरे के सामने खड़ी हो.
क्या हो गया है तुमको? मेरे स्वर से मेरे साथ-साथ वह भी चौंकी. फिर आहिस्ते से बोली, पिताजी नहीं रहे.
ओह! कहकर मैं खामोश होने वाला था कि याद आया, मरनेवाले से मेरा भी कुछ रिश्ता बनता था. तुमने मुझे बताया नहीं? मैंने संवेदना को आगे सरकाया.
सुबह ही फोन आया था, उसने बोलना आरंभ किया.
सुबह की याद से मुझे खीझ होने लगी थी. तभी मैंने देखा उसकी आँखों में आंसू नहीं थे. माँ के मरने पर तो कितना रोयी थी. अब क्या  हो गया है उसे? मैंने साहस कर पूछ ही लिया, रो रही हो?
उसकी निरीह आँखों ने पहले मुझे देखा और अगले पल अपने अजनबीपन को घुटनों से ढंक लिया. घुटनों पर टिकी उसकी गर्दन हिलती हुई सिसकने का आभास दे रही थी. शायद वह रो रही है, अच्छा ही है, मैंने सोचा. घुटनों से आँखें मलने की कोशिश करते हुए उसने पूछा, कितने बज रहे हैं? स्वर कुछ भींगा था.
चार! मैंने बंद घड़ी की ओर देखा और दूसरे कमरे में आकर उसकी बैटरी बदलने लगा. ooo

1 comment:

  1. Very painful to read this story. Its so near to reality that it hurts. How much we are loosing in the age of development. We are being lonely and isolated.- Ateek

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