कथाचर्चा
हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं
- राकेश रोहित
(भाग - 1)
( पूर्वकथन : "हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं" आलेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप में पहली बार जून 1992 में प्रकाशित हुआ था. कहानी के 'महाविशेषांक' की संकल्पना के दौर में प्रकाशित यह आलेख मूल रूप से वर्ष 1991 में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हिंदी कहानियों पर केंद्रित है और इन अर्थों में महत्वपूर्ण है कि शायद किसी एक आलेख में संभवतः पहली बार इतनी कहानियों की चर्चा सम्यक भाव से की गयी है. मित्रों के सुझाव व आग्रह पर हम इस आलेख का पुनः प्रकाशन इस विश्वास के के साथ कर रहे हैं कि संभव है इस आलेख के कुछ संदर्भ समय के साथ पुराने पड़ गये हों पर इससे आलेख में उठाये गये रचनात्मक चिंताओं की प्रासंगिकता कम नहीं होती है. हम अपने विज्ञ मित्रों और पाठकों से अनुरोध करते हैं कि वे कृपया आलेख के पठन के वक्त इसके मूल प्रकाशन का वर्ष ध्यान में रखें और संदर्भों को उसी दृष्टि से देखें. संसाधन की सीमाओं के कारण हम इसका प्रकाशन धारावाहिक रूप से ही कर पा रहे हैं. आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझाओं का इंतजार रहेगा.)
अगर राजेंद्र राव अपने नये स्तंभ 'हाल मुरीदों का कहना' की शुरुआत 'एक हाहाकारी दृश्य' पर इस प्रतिक्रिया के साथ कर रहे हों कि, "महिला कथाकारों का उल्लेख और उनके कृतित्व की चर्चा कुछ इस ढंग से की जाती है कि उन्हें जरा भी ठेस न लगे. नई लेखिकाओं को तो अनुभव भी नहीं होने दिया जाता कि रचनायात्रा एक संघर्षपूर्ण कंटकाकीर्ण पथ है. उदाहरण के तौर पर सुरभि पाण्डेय और गीतांजली श्री की चित्र सहित दो-तीन कहानियां छपी होंगी मगर गजब का हल्ला है. इस तरह की अतिउत्साहवादिता से महिला लेखिकाओं ने साहित्य में भी अपने आपको रक्षिता, असूर्यस्पर्श्या और आलोचना-प्रत्यालोचना से परे मानना शुरू कर दिया हो तो क्या आश्चर्य." तो यह मान लेना चाहिए कि वे इसमें निहित विवाद को भी भली-भांति समझ रहे होंगे. वैसे यह तो आम है कि महिला लेखन को लेकर अक्सर विवाद होते रहे हैं और इसी बहाने इसे आम लेखन से अलग रखने/करने की कोशिशें भी बची रहती हैं. पर एक ही समय में यह बात अलग-अलग तौर पर उठाई जा रही हो तो इस दौर में जब मार्क्सवादी गढों से समाजवाद की समाप्ति के बाद अचानक यथास्थिति के दर्शन को स्थापित करनेवाले सुविधावादी लेखन का जोर हो तो मैं समझता हूँ महिला लेखन पर की जा रही चिंताओं से एक संकेत ग्रहण किया जा सकता है. यह अनायास नहीं है कि जिस समय उपेन्द्र नाथ अश्क 'महिला कथा लेखन की अर्धशती' पर लिख रहे हों उसी समय राजेंद्र यादव, नासिरा शर्मा बनाम मृदुला गर्ग के बहाने 'यथास्थिति में लौटती कद्दावर औरतें', शाल्मली और ठीकरे की मंगनी की प्रतिसमीक्षा में लिखने तथा उषा महाजन 'ऊबे हुए सुखियों के दुःख' पर सफाई देने को विवश हों. पर इससे पहले, क्या यह मान लेना भी एक क़िस्म का सुविधावाद न होगा कि महिला लेखन अपने अधिकांश स्तरों में एक सुविधावादी लेखन है और जिसे न केवल महिलाएं बल्कि उनसे ज्यादा बड़ी संख्या में पुरुष लेखक कर रहे हैं? और तब ऐसी स्थिति में इस किस्म के सुविधावादी लेखन को महिला लेखन के रूप में रेखांकित करना अवश्य ही पुरुष उपनिवेशित मानसिकता का स्पष्ट प्रतीक है. पर शायद समीक्षाएं (आलोचना नहीं) अक्सर प्रचलित प्रतीकों का इस्तेमाल करती हैं. जैसा प्रेमचंद ने 'हंस' नवंबर 1930 में जयशंकर प्रसाद के उपन्यास कंकाल की समीक्षा करते हुए लिखा," लेखक की कवितामयी शैली में यद्यपि इतनी सजीवता और मरदानापन नहीं, पर उसकी कसर सौंदर्य और कोमलता ने पूरी कर दी है" (कहानीकार-112). इस सम्बन्ध में अपने एक लेख में वीर भारत तलवार ने लिखा है, " साहित्य में फेमिनिन होने से प्रेमचंद का मतलब भावुकता, दुर्बलता और प्रवाह के साथ बह जाने से है. मैस्कुलिन साहित्य वह जिसमें दृढता हो, शक्ति हो, चुनौतियों का सामना करने का साहस हो. यह पुरुषोचित और स्त्रियोचित गुणों के बारे में रोमांटिक धारणा तो है ही, इस अर्थ में अंतर्विरोधी भी है कि एक ओर प्रेमचंद स्त्री-पुरुष की समानता की बात करते हैं, दूसरी ओर फेमिनिन को मैस्कुलिन की तुलना में घटिया समझते हैं" (इंद्रप्रस्थ भारती, जुलाई-सितंबर 1991). और यहां एक चिंता जन्म लेनी चाहिए अगर महिला लेखन इसके विरुद्ध हस्तक्षेप नहीं रच पा रहा हो जैसा कि भारत भारद्वाज लिखते हैं, "एक दो अपवादों को छोड़कर अधिकांश कथा लेखिकाओं की कहानियां इस आरोप को बलपूर्वक झुठलाती नहीं हैं कि उनकी कहानियों का घेरा दांपत्य संबंधों में आयी दरार, प्रेमी-प्रेमिका का अंतर्द्वंद्व एवं नारी की यातना एवं यंत्रणा का चित्रण है."
.....जारी
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