Sunday, 7 November 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा

                            हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं 

                                                                           - राकेश रोहित 
(भाग -3) (पूर्व से आगे)

      निर्मल वर्मा की बावली को शायद अस्तित्व के अंतःसंचरण के रूप में देखना कठिन हो पर आप इसे उसकी उपस्थिति के अंतःसंचरण के तौर पर ले सकते हैं. यहां तोशी माँ के छुपकर किये जा रहे प्यार से रची जाती अजनबी दुनिया में अपने पिता के अस्तित्व (उपस्थिति) को कांप कर हवा में गुम हो जाने से बचाती है. यह तोशी द्वारा अपने पिता की उपस्थिति बचने का जतन  जो कि उनकी अठन्नी चाँद में अशर्फी सी चमकती है, तोशी का 'एलियनेशन' से मुक्त होना है. वह माँ जो अपनी आतुरता और उल्लास में तोशी में खतरे की टोह लेती है, उसके प्रति निस्संग भाव से तोशी सोचती है, "घर की देहरी के बाहर कितने खतरे दिखाई देते थे उनके बीच चलती हुई बीजी कितनी छोटी हो जाती थी." यह उसका अकेलापन है जो उसकी माँ ने रचा है और जिसके विरूद्ध वह आइने के सामने खड़े होकर खुद में पिता को तलाशती है और अजनबी अंकल के दिये  दस के नोट से चिपकी गंध को चिन्दियों में फाड़कर गुल्लक में रख देती है. यह वही अकेली(बावली) लड़की है जो कुछ खोने से डरती है, जो पाना सब कुछ चाहती है. वह खुले चाँद में खड़ी है, और उसकी हथेली में अठन्नी  अशर्फी की तरह चमकती है.

        मनोज रूपड़ा की जबह पढ़ते हुए मुझे लगा यहां न केवल अस्तित्व अंतःसंचरित होता है वरन् वह एक दूसरे  में विकास भी करता है. कहानी के आरंभ में मनु है जो अपने अंदर अपनी निकहत रचता है और माँ अपने अंदर अपना मंजूर हसन बचाती है. और तब तक दोनों की दुनिया नितांत अपनी है. कुछ हद तक सूनेपन से भरी, बहुत हद तक अजनबी. वहीँ समय की सांप्रदायिकता के रेशे हैं और ऊपर सहजता की चिकनाहट. यहीं कहीं वह दबाव है जो उस बीते समय को हमारे बीत रहे समय से जोड़ता है और हमें एक साथ सारे समयों में अकेला करता है. मंजूर हसन की हत्या और निकहत की आत्महत्या, और कि उसकी कारक परिस्थितयों पर थीसिस लिखती मनु की माँ, यह सब जो एक जड़ता भरे समय की स्वीकारात्मकता है मनु उसे तोड़ता है. वह माँ के अंदर निकहत और माँ, मनु के अंदर मंजूर हसन का विकास करती है, यह न केवल दो पीढ़ियों का मार्मिक जुड़ाव है बल्कि उनके दो स्वतंत्र अस्तित्व की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी जो जबह का कलमा पढ़े जा रहे इस समय में बचा है एक राहत की तरह.

        रमेश उपाध्याय ने इलाहाबादी लेखक त्रय द्वारा ऐ लड़की कहानी  को "बेजोड़,अद्भुत और कालजयी" बतानी को "प्रायोजित चर्चा के प्रवर्तन का अप्रतिम उदहारण "ठहराते हुए लिखा है, "उन्होंने सिर्फ एक कहानी पढ़ी और उसी को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर दिया"(हिंदी कहानी का जनतंत्र, पहल-42). इसलिए सचेत रूप से मैंने 'वर्तमान साहित्य महाविशेषांक' की सभी कहानियों की चर्चा करने के कोशिश आगे की है जबकि एक लुप्त होती हुई नस्ल, जुमराती मियां और एक वक्त की रोटी की चिंताओं में सहज जुड़ाव है और ये कहानियां कई मायनों में श्रेष्ठ हैं, पर इस चर्चा से वर्तमान कहानी के कंटेंट और फार्म की विविधताओं और सीमाओं को समझने की कोशिश हो सकती है  और यह एक भली सी बात होगी.


(आगामी पोस्ट में वर्तमान साहित्य महाविशेषांक की सभी कहानियों की चर्चा)  
......जारी

2 comments:

  1. बहुत ही सटीक विश्लेषण. इन पुरानी कहानियों के बारे में पढ़ कर कई पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं. अगले पोस्ट का इंतज़ार है.- अतीक अनवर.

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  2. Niranjan Shrotriya4 December 2010 at 06:00

    Bahut achcha vishleshan hai! Gambhir aur uttardayi aalochana!

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