कथाचर्चा
हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं
- राकेश रोहित
(भाग -2) (पूर्व से आगे)
शायद यह स्पष्ट कर देना आवश्यक हो, मैं कतई नहीं मानता कि नारी लेखन और पुरुष लेखन जैसी कोई चीज होती है और हो भी तो वह रचना के मूल्यांकन का आधार नहीं बन सकती. पर बतौर वर्गीकरण, मुझे लगता है आज का महिला लेखन अपने जिस स्वरुप में ज्यादातर है वह एक किस्म की रचनात्मक तलाश तो है पर अविष्कार नहीं. कह सकते हैं कि तलाश का निजी दुनिया की जरूरतों से ज्यादा जुड़ाव है कि अविष्कार एक किस्म की रचनात्मक विलासिता है. पर राजेंद्र यादव की शब्दावली में कहें तो 'इन्वेंशन' कहीं-न-कहीं आपकी रचनात्मकता को 'ओरिजनल' बनाता है और साथ ही तलाश की प्रक्रिया के सिरों को समझने में भी मदद करता है कि जिसकी अनुपस्थिति में आप 'दयनीय जस्टिफिकेशन' से मुक्त नहीं हो पाते हैं. यह अकारण नहीं है कि नारी मुक्ति बनाम नारी चेतना को लेकर आज कई भ्रम रचे जा रहे हैं कि कई महिला रचनाकार जहां इस बहाने अपने को 'वुमेन लिब' के आंदोलन से जुड़ा समझने के आत्मसुख से भरी हैं वहीँ वे अपने अंदर एक अभिजात्य किस्म की सैडिस्ट प्रवृत्ति का भी विकास कर रही हैं. उषा प्रियम्वदा का एक प्रसिद्ध उपन्यास है शेष यात्रा (1984). इसमें एक सरल लड़की अनुका की शादी प्रवासी भारतीय प्रणव से होती है और कुछ अंतराल के बाद उनकी शादी असफल हो जाती है. विदेश में वह अकेली लड़की अपने मौलिक अस्तित्व का अविष्कार करती है. वह खुद डॉक्टर बनती है दीपांकर से विवाह करती है और इस तरह सुख भरे जीवन में लौटती है. यहां तक तो ठीक है पर अंत में अनु की मुलाकात प्रणव से हास्पीटल में होती है. वह मृत्यु के रास्ते पर है. और एक दिन वह अनु से बिना मिले अपना टेस्ट कैंसिल कर वहां से चला जाता है. प्रणव को इस तरह निरीह बना और उसे एक अनिवार्य अपराध बोध से भर उषा जी आखिर क्या कहना चाहती हैं? क्या इससे यह अर्थ नहीं निकलता कि अनुका जिस मुक्ति को पाती और जीती है उसे चुनने के निर्णय के स्वीकार से बचती है. मुझे यहां प्रेमचंद की एक कहानी इस्तीफा (पांच फूल) याद आती है जिसका मध्यवर्गीय नायक अपने ऑफिस में क्रूर अपमान विवश होकर सहता है और तनाव में घर लौटता है. उसकी पत्नी स्थिति जान उसे उत्प्रेरित करती है और साहस के साथ इस्तीफा के निर्णय में निर्णायक सहभागिता निभाती है. एक सीधी-सादी कहानी में अगर प्रेमचन्द इतनी बड़ी बात कह पाये तो यह वर्ग चेतना की समझ से ही हो सका. दरअसल नारी चेतना की बात वर्ग चेतना को उत्क्रमित कर की ही नहीं जा सकती. नारी मुक्ति अगर कोई वायवी चीज नहीं है तो वह शोषण मुक्त परिवेश में ही आकार ले सकती है. नारी लेखन की यह जिद कि वह नए सवाल खड़े कर उनसे जूझेगी सचमुच तमाम रचनात्मकता के लिए विस्मयकारी है. पर इसके बावजूद ऐसा है कि महिला लेखन में वह तत्व है जिसे आप बतौर लेखन रेखांकित करने से बच नहीं सकते. और यह बेझिझक कहा जा सकता है कि जिस लेखन को आप रचनात्मकता की वजह से जानते हैं वह कृष्णा सोबती का है जिनकी कहानी ऐ लड़की आज चर्चा में है. और 'स्पीड पोस्ट बनाम सपोर्ट पोस्ट' जैसे कई संदेहों व संजीव की टिप्पणी कि वहां 'सिवाय अपनी जीभ व विकलांगता के अबसेशन' के कुछ नहीं है और इसके बावजूद कि सृंजय हिंदी पाठकों को कौवा समझते हैं. कौवे उड़ाने के उन्होंने एक ढेला फेंका है "रौंदी गई फसलों के बीच ऐ लड़की का बिजूका". अब भले ही पुरुषोत्तम अग्रवाल के मुल्ला नसरुद्दीन उवाचते रहें- बात इससे साफ हो सकती है अगर आप जानते हों कि बिजूका, सृंजय की एक लघुकथा का शीर्षक है और सृंजय मचान पर बैठे अपने खेत देख रहे हैं!
......तो संभव है यह संयोग हो पर मैं इसे महत्वपूर्ण मानता हूँ कि ऐ लड़की की चर्चा निर्मल वर्मा की बावली और मनोज रूपड़ा की जबह (तीनों वर्तमान साहित्य, महाविशेषांक) के सन्दर्भ में बेहतर की जा सकती है. यह बात रचनात्मकता की सततता (continuum) की ओर इशारा करती है अगर तीन भिन्न रचनाकारों की रचनाओं के अंतःसूत्र एक हों. तीनो कहानी में ध्यान दें तो ऐसा लगता है यह अस्तित्वों के अंतःसंचरण की कथा है. ऐ लड़की में माँ और लड़की का एक दूसरे में परस्पर घुलना है. वहां माँ अपनी जीवन-स्मृति लड़की में खोलती है और इस तरह जीने की इच्छा का आवाहन करती है (तुम्हें बार-बार बुलाती हूँ तो इसलिए कि तुमसे अपने लिए ताकत खींचती हूँ) और उस अनुभव को छू पाती है, "मैं तुमलोगों की माँ जरुर हूँ पर तुमसे अलग हूँ. मैं तुम नहीं और तुम मैं नहीं. मैं मैं हूँ." पर इस अनुभव को पाने के पहले वे एक परकाया प्रवेश जैसी चीज से गुजराती हैं, वह है एक दूसरे को पाना. लड़की से बात करती हुई माँ उसके खीझने पर कहती है, "मैं तुम्हें चुभा थोड़े रही हूँ. सखि-सहेलियां भी ऐसी बातें कर लेती हैं." यही माँ द्वारा लड़की को एक स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में पाने की विनम्र प्रक्रिया है. यहां परम्पराओं की दुनिया से वर्जनाओं की मुक्ति है. उन वर्जनाओं की जो आख़िरी बीमारी में नाना पुत्र-मोह के अधीन पास खड़ी बेटियों को आवाज नहीं देते हैं. माँ भी इससे बच नहीं पाती. वह अंत में फिर इसी पारंपरिक वर्जना की ओर लौटती है. वह मृत्यु के अंतिम क्षण कहती है, "डॉक्टर को नहीं अपने भाई को बुला. खूंटे पर से मेरा घोड़ा खोल देगा समुद्र पार हो जाऊंगी." और लड़की उसे उस समुद्र में डुबकी ले नहा लेने कहती है. वह अब आश्वस्त है माँ के अस्तित्व के प्रति कि माँ ने उसे 'डिसकवर' कर लिया है.
.....जारी
कई सालों से उपन्यास या कहानियां ज्यादा नहीं पढ़ पा रहा हूंक्योंकि उनकी जगह अब फ़िल्म ने ले ली है रचनाओं से परिचय कराने के लिये धन्यवाद.पर अचरज की बात ये है इनमें कुछ नयापन नही दिख रहा है .लग्ता है हिंदी मे कुछ नया नही लिखा जा रहा है सभी रचनाये सालों पहले पढ़ी हुई लगती है.
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