Friday, 21 June 2013

सब्जियाँ, रंग और मनुष्य - राकेश रोहित

कविता

सब्जियाँ, रंग और मनुष्य 
- राकेश रोहित 


सब्जियों का रंग बचाने में
उनका स्वाद छूटता जाता है.

कोई हर दिन, सुबह-शाम
रंगता रहता चीजों को.

जैसे कोई मुरझाये होठों को
रंगता है मुस्कान की तरह!
जैसे कोई परछाई घर से निकलती है
रंगकर अपने को मनुष्य की तरह.


दोस्तों! यदि ऐसे ही बाजार
चुराता रहा जीवन का स्वाद,
एक पीढ़ी पुरातत्वविदों की तरह
चीजों के नाम में चीजों को तलाशेगी.

सब्जियाँ, रंग और मनुष्य / राकेश रोहित