आलेख
क्या 'आरोहण' हिंदी कहानी का नया
प्रस्थान- बिंदु है?
- राकेश रोहित
(हिंदी के महत्वपूर्ण
कहानीकार श्री संजीव जी को ग्यारह लाख रूपये का श्रीलाल स्मृति सम्मान 2013, प्रदान किया गया है. उन्हें हार्दिक बधाई! इस अवसर पर
उनकी कहानी 'आरोहण' (हंस, अगस्त,
1996) पर यह लेख
प्रस्तुत है. यह लेख 'हंस' में 'आरोहण' कहानी के प्रकाशन के उपरांत 'हंस' के दिसंबर 1996 अंक में
प्रकाशित हुआ था. लेख के साथ आये संदर्भो को कृपया प्रकाशन वर्ष के साथ ही देखें.)
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संजीव / कथा का आरोहण |
हिंदी कहानी पर विचार करते समय मैंने अक्सर
यह समझना चाहा है कि मार्क्सवादी मॉडल के विखंडन और और तत्समय के आक्रामक उपभोक्तावाद
के सचमुच के कठिन काल में हिंदी कहानी वह कौन-सा स्वरुप अख्तियार कर सकती है, जो उसकी रचनात्मक आँच
के साथ-साथ उसकी प्रतिबद्धता को भी सुरक्षित रख पाने में संभव हो. इसके पहले मुझे कहने
दीजिए कि हिंदी कहानी में वादाधारित कहानी का जो निर्विवाद दौर आया था, उसमें बाद में मार्क्सवाद की अधकचरी समझ और 'बिहारी' कहानीकारों का जो भी योगदान रहा हो, इसकी शुरुआत एक हद तक संजीव की 'अपराध' कहानी से हुई थी. 'थैंक्यू मिस्टर ग्लाड' के दौर में प्रकशित इस कहानी में यद्यपि तत्कालीन विक्षोभ का प्रतिक्षेपण था
पर इसने शायद उन फार्मूलों का भी विकास किया, जहाँ प्रतिबद्धता कहानी
से अलग नंगी और कुरूप दिखती थी. यद्यपि 'आपरेशन जोनाकी', 'देवी सिंह कौन', 'सुधीर घोषाल', 'बिरजू तो मारा जायेगा' समकालीन कथा-यात्रा के जीवंत दस्तावेज हैं पर प्रतिबद्धतावादी कहानी की उत्तेजना
का स्खलन विजयकांत की 'इंद्रजाल' जैसी कहानियों में साफ-साफ
सामने आया. और आप अन्य लघु पत्रिकाओं की तो बात छोड़िये 'जन चेतना के प्रगतिशील कथा मासिक' उर्फ 'हंस' का प्रगतिशील जन भी लाल रंग, लाल सूरज वगैरह के प्रतीक-जाल में उलझा था या आदम-ईव के घेरे में आकर सिमटा
था.
ऐसी कहानियाँ भी आईं, जो आजादी के बाद के भारतीय समाज व उसकी चुनौतियों की सच्ची समझ से लिखी गई
थीं. पूरा याद करना कठिन हो फिर भी 'हिंगवा घाट में पानी
रे', 'चिट्ठी',
'तिरिया चरित्तर', 'कहीं लौटा तो नहीं', 'शोक पर्व', 'अश्लील',
'पिंटी का साबुन', 'टुंड्रा प्रदेश', 'वे वहाँ कैद हैं', 'शामिल बाजा', 'गुप्तदान', 'क्रेमलिन टाइम', 'भैया एक्सप्रेस' आदि कहानियों को देखें. पर ये कहानियाँ अगर चर्चा में होने के बावजूद मुख्यधारा
की कहानियाँ नहीं रहीं, तो उस जनवादी क्रांति के अघोषित युद्ध के विराम-काल
में एक खामोश-सी कहानी 'आरोहण' (हंस, अगस्त, 1996) क्या हिंदी कहानी का कोई नया प्रस्थान-बिंदु
है और क्या इसका श्रेय फिर से संजीव को ही दिया जाना चाहिए?
दिल पर हाथ रखकर बताइए तो जरा समूची हिंदी कहानी
में भूप दादा जैसे कितने चरित्र याद आते हैं आपको? उसकी जिजीविषा मुझे
अचानक 'भेड़िये' के खारू की याद दिलाती
है, पर कितनी खामोश, कितनी निर्दोष. यह जो
भूप दादा का 'आत्मनिर्वासन' है वह निर्मल वर्मा के 'कौव्वे और काला पानी' के आत्मनिर्वासन से कितना अलग है क्योंकि वस्तुतः यह आत्मनिर्वासन है ही नहीं
यद्यपि दिखता है. तभी तो भूप दादा इतने आत्मविश्वास से कह सकते हैं- "कौन कहता
है अकेला हूँ, यहाँ माँ है, बाबा हैं, शैला है, सोये पड़े हैं सब.
यहाँ महीप है, बल्द हैं, मेरी घरवाली है, मौत के मुँह से निकले गये खेत हैं, पेड़ हैं झरना है. इन
पहाड़ों में मेरे पुरखों, मेरे प्यारों की आत्मा भटकती रहती है. मैं उनसे
बात करता हूँ. मैं अकेला कहाँ हूँ." तो सचमुच के अकेलेपन और पहाड़-सी कठिन जिंदगी
में यह जो अपने को अकेला न समझने की जिदभरी समझ है वही शायद इस आक्रामक समय में एक
विचार को निरीह न समझने की हिम्मत पैदा कर सकती है. और सबसे मार्के की बात है कि आक्रामकता
के विरुद्ध संघर्ष में अकेलेपन के बावजूद एक सदभाव है और वही इस संघर्ष की सबसे बड़ी
शक्ति है. सोचिये, अकेलापन है, दुःख है, पर इसके बावजूद न घृणा है,
न निरीहता है. एक संबल है सत् का, सही
होने का- "(बात) नहीं की, दुःख था, लेकिन देवता जानते हैं
जो कभी उनका बुरा सोचा हो मन में. यहाँ जहाँ हूँ, बुरा
सोचूँगा भी कैसे? मुझे तो सभी पर दया आती है यहाँ से नीचे देखने
पर."
यह है आरोहण सत् का
और सद् का!
जब मैं
कहता हूँ कि 'आरोहण' हिंदी कहानी का नया प्रस्थान-बिंदु है तो मेरा
मकसद एक नये चरित्र की स्थापना या तलाश से ही निष्कर्ष निकाल लेने की सुविधा का नहीं
है बल्कि मेरा जोर यह मानने पर है कि यह कहानी हिंदी कथा-परंपरा के 'डी-स्कूलिंग' का
भी सूचक है. न केवल इस मायने में कि यह संजीव की अपनी पूर्व की कहानियों से इतर है
बल्कि इसलिए भी कि यह कहानी शायद पहली बार उस भाषा में लिखी गयी है जहाँ
अब तक के अछूत समझे गये विषय, अस्तित्व के संकट की समझ जनवादी तरीके से होती
है. ऐसे परिवेश की कल्पना कीजिये,
जहाँ के लोगों के लिए यह विश्वास
करना कठिन हो कि सरकार पर्वतारोहणके लिए भी पैसा दे सकती है वहाँ अगर संजीव अस्तित्व
जैसे कठिन सार्त्रीय विषय की जगह बना लेते हैं, तो इतना तय है कि संजीव
ने फिर एक नये कथा-क्षेत्र की सफल तलाश कर ली है. 'तिड़बेनी का तड़बन्ना' से 'आरोहण' तक की यह यात्रा केवल
संजीव की यात्रा नहीं वरन हिंदी कहानी की भी यात्रा है.
ऐसी स्थिति में, जब अधिकतर हिंदी कविता अगर राग भोपाली में नहीं है तो केदारनाथ सिंह के स्कूल की है
(राजकुमार कुम्भज जैसे कुछेक अपवादों को छोड़कर) और वह भी तब, जब केदारनाथ सिंह सयत्न इसका पाठ्यक्रम लगातार बदलते रहे हैं हिंदी कहानी की
यह 'डी-स्कूलिंग' सुखकर भी है और महत्वपूर्ण भी. हिंदी कविता की यह बहुत बड़ी विडंबना
है कि जिसने आज के तनाव भरे और आतंककारी समयानुकूल भाषा का विकास मुक्तिबोध और रघुवीर
सहाय के दौर में ही कर लिया था,
आज के समय में छायालोक की लिजलिजी
और दुहरावभरी भाषा में बात करती है. समय का तनाव जो मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय ने अपने
समय में अकेले जिया था, वही आज हम सामूहिक रूप से जी रहे हैं, पर मुझे ऐसी कोई कविता बताइए जो उसी खुरदुरी और चुभने वाली भाषा में
लिखी गयी हो. काँटों भरे इस समय में केंचुए-सी कोमलता लेकर आप कविता का क्या करेंगे? माना कि कोमलता अच्छी चीज है और केंचुआ किसानोपयोगी! तो देखिए, अब तक हम निर्विवाद मानते आये थे कि कविता अपने समय की ज्यादा स्फूर्त प्रतिक्रिया
करती है और कहानी पकने में समय लेती है पर इस बार क्या करें अगर हम पाते हैं कि कविता
ने अपने एक तय विषय-सूची बना रखी है, तो कहानी नये संकट से
नये अंदाज से जूझती है, नई भाषा के साथ? अगर आप यह मान लेते हैं कि कुछ नये की तलाश
की निर्दोष कामना में कविता 'स्कूल्ड' होती जा रही है, जबकि कहानी ने, देर से ही सही, 'डी-स्कूलिंग' की जरूरत को समझा है तो आप मान लेंगे कि 'आरोहण' वाकई हिंदी कहानी का नया प्रस्थान-बिंदु है.
('हंस' के दिसंबर 1996 अंक में प्रकाशित )