Friday 17 December 2010

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा 
              हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं 
                                                                               राकेश रोहित 
(भाग -8) (पूर्व से आगे)

          नयी कहानी के शुरुआती दिनों में उषा प्रियंवदा की एक कहानी वापसी (कहानी, 1960) आयी थी जिसे नामवर सिंह ने खास तौर पर रेखांकित किया था. इसमें रिटायर्ड होकर घर लौटे गजाधर बाबू अपने ही घर- परिवार में अपने को अनफिट पाकर फिर अनजानी जगह में अपरिचितों के बीच लौटते हैं. यह कहानी पढते हुए मुझे लगता रहा कि यह परिवारवाद के मध्यवर्गीय समंजन को तोड़ती हुई सामंती सुखबोध की स्थापना (तलाश) शायद अनजाने में ही करती है. वरिष्ठ लेखक शेखर जोशी की डांगरीवाले पढ़कर लगा कि आज इतने वर्ष बाद जैसे अचानक यह कहानी उसके समांतर स्वरूप उसके सही अन्दाज में पाती है. और वह इस तरह कि यह कहानी व्यक्ति के अकेलेपन, पीढ़ियों की प्रतिहिंसा और इन सबके बीच मध्यवर्गीय समंजन के 'स्पेस' को बारीक ढंग से पकड़ती है. पर जाहिर है इसे कोई मोड़ बिंदु (turning point) नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि उषाजी इस संरचना को काफी पहले पकड़ रही थीं कि उनमें व्यक्ति के अकेलेपन और व्यक्तित्व को बचाने का यथास्थितिवादी संकट ज्यादा साफ है. वैसे यहाँ एक बात स्पष्ट होनी चाहिए कि गजाधर बाबू के व्यक्तित्व को बचाने का यह संकट यथास्थितिवादी क्यों है?  जबकि ऐसा है कि गजाधर बाबू जीवन के सौंदर्यबोध और स्वाद की तलाश की छटपटाहट लेकर कहानी में प्रवेश करते हैं. इसी सौंदर्यबोध से वे अपने  पुराने जीवन को  खोई  निधि सा याद करते हैं जिसमें पटरी पर रेल की पहियों की खटखट उनके लिए मधुर संगीत की तरह थी. और जब वे अपने परिवार में  लौटते हैं तो पाते हैं कि वहां पूंजीवादी उदारता से रचे समंजन में  बेस्वाद जिंदगी का यथास्थैतिक स्वीकार है और परंपरा बोध के नाम पर अशुद्ध स्तुति करती पत्नी है. गजाधर बाबू अपनी चेतना में इसे नकारते हैं और 'जो है, जैसा है' में शामिल हो जाने से इंकार करते हैं. पर क्या यह चेतना भारतीय परिवार की सामंती प्रक्रिया से संचालित होती है जिसके तहत आरंभ में वे थके हारे घर लौटने पर पत्नी के रसोई के द्वार पर निकल आने के आग्रही हैं और बाद में घी और चीनी के डिब्बों में रमी पत्नी का भारी सा शरीर उन्हें बेडौल और कुरूप लगता है. और क्या वे इसलिए अपने को मिसफिट पाते हैं कि वे घर के केंद्र में बने रहने के 'पुरुषोचित' आग्रह से मुक्त नहीं हो पा रहे और इसी मंशा से अपने लिए एक आर्थिक सत्ता की तलाश में पूंजीवादी विस्तार को स्वीकारते हैं और मिल में नौकरी करने को स्वीकार कर पूंजीवादी उदारता में व्यक्ति को बचाए रखने के भ्रम को कायम करते हैं. और शायद यही  वह बिंदु हो सकता है जिससे इस कहानी को समझने का सूत्र हासिल हो सकता है. वह है कि एक परिवार जो पूंजीवादी उदारता के आग्रहों से भरा अपने मूल और प्राचीन स्वरूप, जो काफी हद तक सामंती था, से मुक्त हो चुका है. उसमें कथा नायक अपनी ईमानदार चेतना, भले ही वह उसकी सामंती सांस्कारिकता  से संचालित होती है,  के साथ प्रवेश करता है और अस्वीकार दिये गये सौंदर्यबोध   की तलाश में छटपटाता है. पर वह अपनी चिंता के साथ अकेला है और परिवार के पूंजीवादी ढांचे को नकार कर अंततः फिर उसी पूंजीवादी विस्तार में शामिल होता है तथा इस तरह यथास्थिति के विरुद्ध यथास्थिति को स्वीकार करता है. यह उसकी नियति है या नहीं,  कहानी इसे नहीं छूती पर वह इस परिणति तक पहुंचती है और इस तरह वह परिवार के सामंती ढांचे के चरमराने तथा इसके  विरुद्ध पूंजीवाद के व्यापक प्रसार की सूचना देती है. यह नेहरु के मिश्रित अर्थव्यवस्था के समाजवादी स्वप्न से लोगों के मोहभंग का काल था जब केरल में 1957 में देश की  पहली साम्यवादी सरकार की  स्थापना होती  है.

      दूधनाथ सिंह की लौटना में वर्जनाओं की  दुनिया में मुक्ति का उछाह भरता बच्चा है जो गोसाईं को अपनी चेतना के अनुभव में लौटाता है. अलका सरावगी की कहानी आपकी हँसी वाचक 'मैं'  की संवेदनशीलता को 'ग्लोरीफाई' करती है. कहानी के अंत में जब नत्थू बाबू के दूर के रिश्तेदार हँसते हुए बताते हैं, "दरअसल आपकी ही तरह का पागल है वह", तो इसमें लेखिका की कोशिश 'मैं' की संवेदना को विशिष्ट करने की हैं. यह कहानी उस 'पागल'  जिसकी सुन्दर बीवी किसी 'यार' के साथ भाग गयी पर आपकी हँसी के विरुद्ध तो है पर इस बहाने  क्या यह एक व्यक्ति के 'डाइल्यूशन' से उत्पन्न विचलन को एक शिथिल संवेदना से ढंक नहीं देती है?  और अगर यह कहानी आलोचकों को पसंद आ रही है तो केवल इसलिए कि वे इस संवेदना की चमक अपने अंदर महसूसना चाहते हैं. एक व्यक्ति द्वारा खुद को तुच्छ समझे जाने तथा निर्मम किस्म की आज्ञाकारिता के टूटन को कहानी किस तरह स्वीकार कर लेती है, इस पर उनकी नजर नहीं है. गिरिराज किशोर की आंद्रे की प्रेमिका पढ़ते हुए मुझे लगा कि वे जो जीवन में साहित्य तलाशेंगे जीवन को कितना ठहरा हुआ पायेंगे. मंजुल भगत की मलबा सामूहिक जिजीविषा की एक अच्छी कहानी है जो नारी चेतना को नारी मुक्ति की तरह नहीं उठाती है बल्कि उसे एक वर्ग-अस्तित्व में बदल देती है और अजवायन सनी रोटियां मीठी होकर गले में घूम-घूमकर फैलने लगती हैं.

 (आगामी पोस्ट में वर्तमान साहित्य महाविशेषांक की कहानियों की चर्चा जारी)


                                                                      .....जारी       

2 comments:

  1. hindi sahitya ke pathhkon ke liye aisi post bahut hi upyogi hai .dhanywad .

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  2. यह एक बहुत ही सुंदर कहानी है

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