Sunday 17 April 2011

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं - राकेश रोहित

कथाचर्चा
              हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं
                                   (आज की हिंदी कहानी में छात्र कहां हैं ?)                        
                                                                     - राकेश रोहित
(भाग- 17) (पूर्व से आगे)

राजेन्द्र चंद्रकांत राय की पौरुष (हंस, जुलाई 1991) के बहाने बटरोही 'हंस' का विरोध 'नवभारत टाइम्स' में कर चुके हैं और राजेंद्र चंद्रकांत राय अपना बचाव भी. राजेंद्र चंद्रकांत राय का यह कहना बिल्कुल सही है कि कहानी पर अपने कलीग (colleague) की टिप्पणी उद्धृत करने के के बजाय बटरोही खुद टिप्पणी क्यों नहीं करते? बटरोही जी समर्थ आलोचक हैं और उन्हें ऐसी सुविधा की जरुरत कतई नहीं होनी चाहिए. राजेंद्र चंद्रकांत राय  की कहानी पौरुष और औरत का घोड़ा (वर्तमान साहित्य, सितंबर 1991) शिक्षा संस्थानों के शैक्षणिक स्टाफ उर्फ शिक्षकों के आपस की रुमानियत रहित, 'शेष-समय-प्रेम' की कहानी है. इस संदर्भ में एक दिलचस्प बात सामने आती है वह यह कि कम-से-कम हमारे यहां छात्र अब कालेज के जरूरी उपकरणों में शामिल नहीं हैं. और यह अकारण नहीं है अगर कॉलेज आधारित कहानियों में छात्र अब उपस्थित नजर नहीं आते हैं. वैसे वे अपनी सामूहिकता में अपना मोर्चा (काशीनाथ सिंह) जैसे उपन्यासों में भले मिल जाते हों पर वैयक्तिकता को लेकर जिस तरह कॉलेज जीवन में पनपने वाले प्रेम संबंधों का चित्रण रांगेय राघव ने अपने पहले उपन्यास घरौंदा में किया वह अब दुर्लभ सी चीज हो गयी है. आज के लेखकों को कॉलेज पर कुछ लिखना हो तो जाहिर है उन्हें कॉलेज के अध्यापकों और अध्यापिकाओं के वाद-विवाद और प्रेमवाद से ही काम चलाना पड़ेगा. पर असली सवाल तो यह है कि छात्र अगर स्कूल-कॉलेजों में नहीं हैं तो वे कहां हैं? सड़कों पर तो वे हैं नहीं! खेत-खलिहानों, जंगल-मैदानों में तो कदापि नहीं. नाव और रिक्शा तो आउट डेटेड चीज है और रेल बोरियत भरी! आज की हिंदी कहानी में छात्र बसों में हैं. बस! 
     
यहीं - कहीं  है  प्रेम


(आगामी पोस्ट में उस वर्ष की अन्य कहानियों पर चर्चा)
...जारी 

3 comments:

  1. इस श्रृंखला में आप अच्छा काम कर रहे हैं। लगे रहिये.....

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  2. छात्र हैं, घर-घर में हैं और खूब हैं लेकिन हमारे लेखक इन्हें जनरुचि के विषय के रूप में नहीं चुनते ! संभवतः छात्र और छात्रों से जुडी समस्याएं इन्हें उतनी ज्वलंत नहीं लगती जितनी अन्य ! जबकि ऐसा नहीं है बल्कि छात्र जीवन से ही सडकों का कोलतार पिघलना आरम्भ हो जाता है ! फिर भी यह वर्ग लेखकों की विषय-सूची से अकारण ही बाहर है ! आपने इस ओर ध्यान खींच कर सराहनीय कार्य किया है !

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  3. dr.manasa pandey11 January 2012 at 12:30

    bahut acha hai yah.yse ksmo ka swagat hai.

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