कथाचर्चा
हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं
- राकेश रोहित
(भाग- 18) (पूर्व से आगे)
सुरेश कांटक की कहानी धर्म संकट (हंस, अगस्त 1991) में अवधेश का संकट आज के शुद्धतावादी हिंदी कथाकार का संकट है जो अपनी वैचारिकता से न तो किसी नैतिकतावादी संबंध को 'जस्टीफाई' करने की स्थिति में है और न ही उसके पास किसी भौतिकतावादी संबंध की दैहिकता को स्वीकार करने का साहस है. वह इसके मध्य फंसा है जैसे उसकी कहानी. रंजन जैदी की कहानी तब और अब (इंद्रप्रस्थ भारती, मार्च 1991) भी इसी का उदाहरण है, जहाँ लेखक फ्रायड को पढ़ने के बाद भी नियतिवादी आग्रह से मुक्त नहीं है. प्राइवेट लाइफ की गीतांजली श्री की दहलीज (हंस, अगस्त 1991) में भाषा की नफासत पहले चौंकाती है प्रभावित बाद में करती है. मृणाल पांडे की कहानी हिर्दा मेयो का मंझला (हंस, अक्टूबर 1991), शशांक की कहानी सुदिन (हंस, वही) और गुलज़ार की कहानी सनसेट बुलेवार (हंस, वही) अपनी पूर्ण संभावना का उपयोग नहीं करती है और अपेक्षा अधूरी रह जाती है. पर इसके बावजूद गुलजार की सनसेट बुलेवार में चारुलता का अपने मकान के प्रति मोह अपने समय के विरुद्ध कुछ जो व्यक्तिगत है, प्रिय है को बचा लेने की इच्छा है और समय की नृशंसता जिसकी अस्ति का अंत कर देती है. सी. भास्कर राव की आतंक (हंस, वही) अपनी कथात्मकता और उसमें अंतर्निहित आस्था के कारण प्रभावी है. हवन (गंगा) से सुपरिचित हुईं सुषम बेदी की कहानी पार्क में (हंस, वही) आयी है जो अंत में इराक-अमरीका युद्ध में एक मनुष्य के पक्ष के अकेले पड़ते जाने को पकड़ती है. विजय प्रताप की कहानी वैक्यूम (हंस, वही) वैज्ञानिक विजन का उपयोग करते हुए प्रायोगिक और सैद्धांतिक के अंतर्विरोध को छूती है और इस अंत तक पहुंचना कि कोई सिद्धांत निरपेक्ष नहीं होता कि बचपन में जो शिक्षा हमें दी जाती है उसे अमल में लाने के लिए वैक्यूम जैसी किसी विशेष स्थिति की जरूरत होती है, सचमुच अपनी सीमाओं में हमें परेशान करता है. असलम की यप-यप-यप्पी (हंस, नवम्बर 1991) मूल्यों के बदलाव और धीरे-धीरे उसमें अमानवीयता के सहज शुमार का ग्राफ है. शफी जावेद की कहानी अजनबी (हंस, वही) की शांत भाषा का तनाव महत्वपूर्ण है. एक सवाल जो कहानी उभारती है -क्या औरत से शादी करने के लिए उसके धार्मिक विश्वास को भी अपनाना जरूरी है? आनन्द बहादुर की कबाब (हंस, दिसंबर 1991) खंडश: प्रभाव में एक अच्छी कहानी लगती है पर विचार के रूप में यह निकट-दृष्टि से मुक्त नहीं हो पाती है. और यह आश्चर्यजनक भी नहीं है क्योंकि धर्म को लेकर जिस संक्रमणशील दौर में हम रह रहे हैं वहां अपने नजरिये को 'एबसोल्यूट' रूप में विकसित कर पाना बहुत कठिन है. ऐसा लगता है इस कहानी में लेखक अजाने में उस स्थिति को स्वीकृत कर रहा है जिसमें दबावों के बीच एक आदमी अपनी मान्यताओं के साथ सुरक्षित नहीं है.
सूर्यास्त/अन्विता के. |
(आगामी पोस्ट में उस वर्ष की अन्य कहानियों पर चर्चा)
...जारी
hindi kahaniyon se sambandhit aapki ye post bahut gyanvardhak hain .aabhar .
ReplyDeletekahaaniyon ki miimansa par bdhiya lekh hai
ReplyDeletebahut jaankari poorna aur sundar vishleshan.
ReplyDeleteहिंदी कहानी को लेकर इतना सारगर्भित प्रस्तुति काबिलेगौर है.
ReplyDeleteथोडा सा देखा लेकिन पूरा पढ़े बीन रहा न गया.
सादर