कथाचर्चा
हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं
- राकेश रोहित
(भाग- 15) (पूर्व से आगे)
विजय प्रताप की कहानी खराब लड़की ( हंस, जनवरी 1991) को मूल्य के अंत को सार्थक व्यावहारिकता के रूप में स्वीकार लिए जाने की कोशिश के रूप में समझा जा रहा है पर यह कहानी उतनी सहज नहीं कि इस मुद्दे पर आप इतनी आसानी से चिढ़ जाएं. दरअसल यह परिवार में रिश्तों को तार्किक ढंग से प्राप्त करने की वह 'एप्रोच' है जहां नारी, प्रेम के अंत के इस समय में, अपने को मुक्त कर सकती है. सुथि द्वारा आत्म-समर्थित जीवनशैली को पाने की यह प्रक्रिया कितनी सहज है इसका संकेत पिता और बेटी के बीच चाकू को उठाकर फेंक दिये जाने में मिलता है. इस कहानी से समय के तनाव को 'फीमेल नेरेशन' में आप उसी तरह पाते हैं जिस तरह अखिलेश की चिट्ठी ( हंस, अगस्त 1989) से 'मेल नेरेशन' में. श्यामा की रोटी (अशोक राही, वही) एक अच्छी प्रेम कहानी है जिसमें पगली श्यामा उस प्रेम की प्रतीक है, अनु द्वारा रोटी दिये जाने के बाद भी जिसका अंत इस दौर की नियति है. 'नैरेटर' (narrator) का कहानी के मध्य सीधा संवाद करना इसे रूमानी होने से बचाता है. लवलीन की कुंडली ( वही, फरवरी १९९१) आफिसों में कम कर रही, और 'मेल कमेन्ट' से जूझती स्त्री की त्रासदी का बयान तो है पर इसे वैचारिकता को लेकर और सजग होना चाहिए था. सुभाष पन्त की पहाड़ की सुबह (वही, मार्च 1991) लोककथा का गंभीर आनंद देती है. नरेंद्र नागदेव की लिस्ट ( वही) बेरोजगारी की स्थितियों पर लिखी अच्छी कहानी तो है पर इससे एक महत्वपूर्ण संकेत लिया जा सकता है कि यह वह कहानी है जो अनुभव को यथार्थ में बदलने की हडबड़ी से उपजती है. इससे अलग यहां यह जिक्र किया जाना चाहिए कि फैंटेसी के इसी उपयोग से भाईयों, मुझे जड़ की तलाश है (सत्यनारायण, हंस जनवरी 1987) जैसी उत्कृष्ट रचना संभव हो सकी है.
कहा जाना चाहिए हिन्दी कहानी में एक शहर होता है जो गांव सा दीखता है, एक गांव होता है जो शहर सा दीखता है और एक बिहार होता है जो किसी सा नहीं दीखता है. वैसे बिहार वाले चाहें तो इस पर गर्व कर सकते है कि इस 'बिहार' का विकास हिन्दी कहानी में बिहार से बाहर भी बहुत हुआ और नकली जनवाद का आतंक रचने में ये कहानियां अव्वल रहीं. अब सुधीश पचौरी भले चिंता करें कि बिहार की कहानी में भागलपुर की खबर क्यों नहीं है? मुझे लगता है कि बिहार की कहानी का जो मूल संकट है वह यह कि यह न केवल अपने प्रान्त के परिवर्तनशील यथार्थ की उपेक्षा करती वरन् उससे काफी हद तक अनभिज्ञ भी है. इतिहास- बोध जैसी चीज का यहां बिल्कुल अभाव है और इसलिए यह अपने समय में अपनी अजनबीयत को पकड़ पाने में पिछड़ जाती है और अक्सर यथार्थ को एकांगी नजरिये से देखती है. इस 'टोटल कंसेप्शन' के अभाव के बाद बिहार-कहानी में विजन का विकास हो पाना तो मुमकिन न ही था, पर जैसा कि हिन्दी कहानी में होता है वह भाषिक क्षमता से विजन की अनुपस्थिति को छुपाती है और गाहे-बगाहे इसी प्रक्रिया से विजन को पाती है, वह भाषिक क्षमता प्राप्त करने में भी बिहार-कहानी अक्सर चूकती है. जबकि बिहार में कई सशक्त गद्य परंपराओं- वह चाहे शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह का हो या फिर आंचलिकता का मिथ गढ़ने वाले 'रेणु' का- लंबा इतिहास रहा है. ऐसे में आज यह देखना हैरत भरा है कि बिहार के कहानीकारों की कोई ऐसी व्यक्तिगत पहचान नहीं है कि आप उन्हें कुछ मानक आधारों पर अलग कर सकें. इस सिलसिले में शायद एक नाम है जिसे विचार में अवश्य रखा जाना चाहिए, वह है- चन्द्र किशोर जायसवाल. इन्होने हिन्दी कहानी में जो खास चीज विकसित की है वह है कथा के समांतर सहज व्यंग्य की, सहायक भाव की तरह उपस्थिति जो बिना किसी बड़बोलेपन के मनुष्य के अंतर के छद्म पर आघात करती है. और यह इसके बावजूद कि इनके यहां आंचलिकता न केवल आभिजात्य है, वरन् कथात्मकता की 'डिमांड' भी ज्यादा है.
(आगामी पोस्ट में चन्द्र किशोर जायसवाल की कहानी पर चर्चा)
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