मोड़
- राकेश रोहित
हर दिन कोई
इस मोड़ पर
दम तोड़ देता है.
हर दिन कोई इस मोड़ पर दम तोड़ देता है.
देखती हैं टिमटिमाती बत्तियाँ
भौंकते हैं कुछ कुत्ते आवारा
घबराकर कोई खिड़की खुली
छोड़ देता है.
हर दिन कोई
इस मोड़ पर
दम तोड़ देता है.
दम घुटता है खामोशी का इस मोड़ पर
मोड़ भी कुछ कम नहीं परेशान है
मरने से पहले कोई करता है क्या बयान
कि शेष रह जाती उसकी पहचान है!
यूँ तो यह मोड़ भी रहता नहीं खामोश है
है जारी भारी चहल-पहल
महलों का पहरा ठोस है.
पर कोई-ना कोई
यह किस्सा तो जोड़ देता है
हर दिन कोई इस मोड़ पर दम तोड़ देता है.
हर दिन कोई
इस मोड़ पर
दम तोड़ देता है.
मोड़ / राकेश रोहित |
सुन्दर अभिव्यक्ति ! मंजुल भटनागर
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति ! मंजुल भटनागर
ReplyDeleteyou have written well , specially that poem - do shabd - fir prem mujhe chhuta hai... bahut hi kam shabdon me sunder abhivykti :)
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