Monday 11 August 2014

इच्छा, आकाश के आँगन में - राकेश रोहित

कविता 
इच्छा, आकाश के आँगन में
- राकेश रोहित

इच्छा भी थक जाती है
मेरे अंदर रहते- रहते
यह मन तो लगातार भटकता रहता है
आत्मा भी टहल आती है
कभी- कभार बाहर
जब मैं सोया रहता हूँ।

यह बिखराव का समय है
मैं अपने ही भीतर किसी को आवाज देता हूँ
और अपने ही अकेलेपन से डर जाता हूँ।
यह समय ऐसा क्यों लगता है
कि काली अंधेरी सड़क पर
एक बच्चा अकेला खड़ा है?

लोरियों में साहस भरने से
कम नहीं होता बच्चे का भय
खिड़कियां बंद हों तो सारी सडकें जंगल की तरह लगती हैं।
इच्छा ने ही कभी जन्म लिया था मनुष्य की तरह
इच्छाओं ने मनुष्य को अकेला कर दिया है
आत्मा रोज छूती है मेरे भय को
मैं आत्मा को छू नहीं पाता हूँ।

मैं पत्तों के रंग देखना चाहता हूँ
मैं फूलों के शब्द चुनना चाहता हूँ
संशय की खिड़कियां खोल कर देखो मित्र
उजाले के इंतजार में मैं आकाश के आँगन में हूँ।

चित्र / के.  रवीन्द्र 

4 comments:

  1. मैं अपने ही भीतर किसी को आवाज देता हूँ
    और अपने ही अकेलेपन से डर जाता हूँ।
    यह समय ऐसा क्यों लगता है
    कि काली अंधेरी सड़क पर
    एक बच्चा अकेला खड़ा है? राकेश जी बहुत ही गहन भाव लिए अहसासों को अल्फाज़ देती आपकी रचना , बहुत सशक्त भाव अभिव्यक्ति है ,बधाई स्वीकारें .

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