Thursday 9 October 2014

गजब कि अब भी, इसी समय में - राकेश रोहित

कविता
गजब कि अब भी, इसी समय में 
- राकेश रोहित

गजब कि ऐसे समय में रहता हूँ
कि खबर नहीं है उनको
इसी देह में मेरी आत्मा वास करती है।

गेंद की तरह उछलती है मेरी देह
और मन मरियल सीटी की तरह बजता है
हमारी भाषा के सारे विस्मय में नहीं
समाता उनकी क्रीड़ा का कौतुक!
गजब कि इस समय में मुग्धता
नींद का पर्याय है। 
गजब कि आत्मा से परे भी
बचा रहता है देहों का जीवन!

रोज मेरी देह आत्मा को छोड़ कर कहाँ जाती है
रोज क्यों एक संशय मेरे साथ रहता है
रोज दर्शन का एक सवाल उठता है मेरे मन में
आत्मा मुझमें लौटती है
या मैं आत्मा में लौटता हूँ!

क्या हमारा अस्तित्व
धुंधलके में खामोश खड़े
पेड़ों की तरह है
लोग तस्वीर की तरह देखने की कोशिश करते हैं हमें
और मैं अपने अंदर समाये
हजार स्वप्न और असंख्य साँसों के साथ
नेपथ्य में खड़ा
आपके विजय रथ के गुजरने का इंतजार करता हूँ?

कैसे हारे हुए सैनिकों की तरह लौट गयी है इच्छायें,
कैसे उदासियों के पर्चे फड़फड़ा रहे हैं?
कैसे अनगिन तारों के बीच
निस्तब्ध सोयी है पृथ्वी,
कैसे कोई जागता नहीं है
कि सुबह हो जायेगी?

गजब कि ऐसे समय में, अब भी,
तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ है
गजब कि अब भी,
इसी समय में,
कोई कहता है
कोई सुनता है!

चित्र / के. रवीन्द्र

8 comments:

  1. एक अच्छी कविता पढ़ाने के लिए धन्यवाद

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  2. बहुत अच्छी कविता।

    ‘क्या हमारा अस्तित्व
    धुंधलके में खामोश खड़े
    पेड़ों की तरह है
    लोग तस्वीर की तरह देखने की कोशिश करते हैं हमें
    और मैं अपने अंदर समाये
    हजार स्वप्न और असंख्य साँसों के साथ
    नेपथ्य में खड़ा
    आपके विजय रथ के गुजरने का इंतजार करता हूँ?’....बहुत खूब!

    (देवेंद्र मेवाड़ी )

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  3. भाई अच्छी कविता है। आपको बहुत बधाई...।।

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  4. कैसे हारे हुए सैनिकों की तरह लौट गयी है इच्छायें,
    कैसे उदासियों के पर्चे फड़फड़ा रहे हैं?
    कैसे अनगिन तारों के बीच
    निस्तब्ध सोयी है पृथ्वी,
    कैसे कोई जागता नहीं है
    कि सुबह हो जायेगी?
    ..बहुत सुंदर चिंतन ..

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  5. हमेशा की तरह कुछ विस्मय और बहुत से संतोष से भरती है यह 'गजब' कविता , कविता का दार्शनिक आयाम अद्भुत है । बधाई !

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  6. तो इस वक्त को पहचानने की एक कोशिश और उनको आगाह करना भी कि जिन्हें पता ही नहीं आदमी की आत्मा के बारे में । देह की भाषा जो न समझें वे आत्मा की बातें भला कहां समझ सकते और कवि जानता है कि वह नहीं समझ रहे और उन्हें वह प्रबोध दे रहा है - अपनी पूरी संजीदगी में । कहता है कि –
    "गजब कि ऐसे समय में रहता हूँ
    कि खबर नहीं है उनको
    इसी देह में मेरी आत्मा वास करती है।"

    उन्हें पता सब कुछ है और कवि भी जानता है पर वह उनकी भाषा में बोल रहा कि वे कितने निरीह हैं और कितने छल-प्रपंचहीन हैं कि उन्हें पता ही नहीं कि - इसी देह में आत्मा वास करती है । (?) वैसे राकेश ने बात-चीत के लहजे में एक बड़ी बात कहने की कोशिश की है कि –
    'हमारी भाषा के सारे विस्मय में नहीं
    समाता उनकी क्रीड़ा का कौतुक !"

    आगे बड़ी ही संवेदनशील तथ्यात्मक बातें वे कविता में रख रहे हैं जिसमें कहीं कोई नाटकीयता या बुनावट का कोई जाला नहीं है, एक असह्य और बेहद पीड़ादायक मनःस्थिति से जूझता एक आम आदमी जो पूछता है कि –
    "क्या हमारा अस्तित्व
    धुंधलके में खामोश खड़े
    पेड़ों की तरह है
    लोग तस्वीर की तरह देखने की कोशिश करते हैं हमें
    और मैं अपने अंदर समाये
    हजार स्वप्न और असंख्य साँसों के साथ
    नेपथ्य में खड़ा
    आपके विजय रथ के गुजरने का इंतजार करता हूँ?"

    और फिर मुखातिब है उस ओर जहां
    उन्हें लगता है कि –

    "कैसे कोई जागता नहीं है
    कि सुबह हो जायेगी?"

    और इस अहसास के वावजूद कवि को बेहद भरोसा है कि –
    "गजब कि ऐसे समय में, अब भी,
    तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ है
    गजब कि अब भी,
    इसी समय में,
    कोई कहता है
    कोई सुनता है!"

    हम कह भी रहे और कवि को सुन भी रहे ! किंतु पता नहीं कि कुछ लोगों के कान, कुछ लोगों के द्वारा कही बातेx सुन भी पाती हैं या नहीं ? संत्रास की इस देहरी पर आने पर भी कवि आस्वस्थ है कि बात सुनी जा सकती है पर आदमी हाशिए पर भी है - यह कविता बता रही और आगाह कर रही है कि उसे इस संत्रास का पता है और उसे ना समझ समझना, सही नहीं ।


    (दिनांक 24 अक्तूबर, 2014 को 02 बज कर 17 मिनट पर मैंने अपनी उक्त समीक्षा श्री राकेश रोहित की कविता “गजब कि अब भी, इसी समय में” के प्रसंग में उनके ब्लॉग “आधुनिक हिन्दी साहित्य” पर पोस्ट की थी किंतु वह भूल से उनकी कविता “इच्छा, आकाश के आँगन में” के पृष्ठ पर पोस्ट हो गई थी । अतः उसे वहीं से मैं डिलिट कर उनकी संबंधित कविता के पास रख दे रहा हूँ ताकि पाठक उसे संदर्भतः पढ़ें और कोई भ्रांति न हो । मेरी उस भूल से पाठकों को हुई किसी भी प्रकार की असुविधा के लिए मुझे बेहद खेद है क्योंकि साहित्य में संदर्भ का प्रसंग ही जिंदगी के रु-ब-रु हमें खड़ा करता है । आशा है , पाठक इस असुविधा को नज़रअंदाज करेंगे । बहरहाल, अपनी समीक्षा और अपने विचार आप तक पहुंचाना मैं अपने सृजनात्मक कर्म का एक महत्वपूर्ण कृत्य मानता हूँ और इसी प्रतिबद्धता के साथ श्री राकेश रोहित की कविता “गजब कि अब भी, इसी समय में” के प्रसंग में अपनी उक्त समीक्षा पुऩः तद्वत् पोस्ट कर रहा हूं ।)

    *****

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  7. रोज क्यों एक संशय मेरे साथ रहता है रोज दर्शन का एक सवाल उठता है मेरे मन में आत्मा मुझमें लौटती है या मैं आत्मा में लौटता हूँ!

    अद्भुत भाव लिय एक बहुत ही सशक्त रचना है राकेश जी ,बधाई इस सुन्दर सृजन के लिए .

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  8. जब कि अब भी, इसी समय में, कोई कहता है कोई सुनता है!.. Behatreen.. kavita ka bahut hi shandaar ant.. aaj ke samay me hum kahte zyada hai aur sunte kam hai.. is sansaar me vicharte hue shareeron ke beech aatma ka upasthiti ka ehsaas adbhut hai.. bahut bahut badhaiyaan aapko aur sath hi bahut bahut dhanywaad bhi!!

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