कविता
एक प्रार्थना, एक भय
- राकेश रोहित
“कवियों में बची रहे थोड़ी सी लज्जा"* -
मंगलेश डबराल की कविता पढ़ते हुए
पहले प्रार्थना की तरह दुहराता हूँ इसे
फिर डर की तरह गुनता हूँ।
मंगलेश डबराल की कविता पढ़ते हुए
पहले प्रार्थना की तरह दुहराता हूँ इसे
फिर डर की तरह गुनता हूँ।
डर कि ऐसे समय में
रहता हूँ
जहाँ प्रार्थना करनी होती है
कवियों में मनुष्य के बचे होने की
हे प्रभु क्या बची रहेगी कवियों में थोड़ी सी लज्जा!
जहाँ प्रार्थना करनी होती है
कवियों में मनुष्य के बचे होने की
हे प्रभु क्या बची रहेगी कवियों में थोड़ी सी लज्जा!
क्या साथ देंगी प्रलय
प्रवाह में वे नावें
जिन पर हम सवार हैं?
जिन पर हम सवार हैं?
इन बेचैन रातों में
अक्सर होता है
जब मन तितली में बदल जाता है
और गुपचुप प्रार्थना करता है
कि वे जो खेल रहे हैं शब्दों से गेंद की तरह
खिलने दें उन्हें फूलों की तरह!
जब मन तितली में बदल जाता है
और गुपचुप प्रार्थना करता है
कि वे जो खेल रहे हैं शब्दों से गेंद की तरह
खिलने दें उन्हें फूलों की तरह!
मैं चाहता हूँ संभव
हो ऐसा समय
जिसमें यह इच्छा अपराध की तरह न लगे
कि मनुष्यों में बची रहे हजार कविता
जिसमें यह इच्छा अपराध की तरह न लगे
कि मनुष्यों में बची रहे हजार कविता
और कविता में बचा
रहे हजार मनुष्य!
ooo
ooo
(* "कवियों में बची रहे थोड़ी सी लज्जा" - मंगलेश डबराल
यह पंक्ति मंगलेश
डबराल जी की इसी शीर्षक कविता की अंतिम पंक्ति है और उनसे साभार) चित्र / के. रवीन्द्र |
बहुत खूब!!
ReplyDeleteGood
ReplyDeletegooooooooooooooooooooooood
ReplyDelete