Friday 16 October 2015

एक दिन - राकेश रोहित

कविता
एक दिन
- राकेश रोहित

सीधा चलता मनुष्य
एक दिन जान जाता है कि
धरती गोल है
कि अंधेरे ने ढक रखा है रोशनी को
कि अनावृत है सभ्यता की देह
कि जो घर लौटे वे रास्ता भूल गये थे!

डिग जाता है एक दिन
सच पर आखिरी भरोसा
सूख जाती है एक दिन
आंखों में बचायी नमी
उदासी के चेहरे पर सजा
खिलखिलाहट का मेकअप धुलता है एक दिन
तो मिलती है थोड़े संकोच से
आकर जिंदगी गले!

अंधेरे ब्रह्मांड में दौड़ रही है पृथ्वी
और हम तय कर रहे थे
अपनी यात्राओं की दिशा
यह खेल चलती रेलगाड़ी में हजारों बच्चे
रोज खेलते हैं
और रोज अनजाने प्लेटफार्म पर उतर कर
पूछते हैं क्या यहीं आना था हमको?

इस सृष्टि का सबसे बड़ा भय है
कि एक दिन सबसे तेज चलता आदमी
भीड़ भरी सड़क के
बीचोंबीच खड़ा होकर पुकारेगा-
भाइयों मैं सचमुच भूल गया हूँ
कि मुझे जाना कहाँ है?

चित्र / के. रवीन्द्र 

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-10-2015) को "देवी पूजा की शुरुआत" (चर्चा अंक - 2132) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुंदर कविता।आदमी की वर्तमान स्थिति को बयां करती रचना।

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  3. गूढ़ भावों को समेटे जीवन दर्शन की बात करती खूबसूरत रचना

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