Sunday 4 October 2015

मेरी आत्मा, पत्थर और ऊषा तुम - राकेश रोहित

कविता
मेरी आत्मा, पत्थर और ऊषा तुम
- राकेश रोहित

ऐसा होता है एक दिन
कि पथरीले रास्तों पर आते- जाते
मेरी आत्मा से एक पत्थर चिपक जाता है
फिर जितनी बार हिलाओ
मेरी खोखली देह में बजता है वह पत्थर!

दुनिया के सारे शीशे दरक जाते हैं
जब मैं अपने हाथ में अपनी आत्मा लेकर
खड़ा होता हूँ
उन शीशों के सामने
तब मैं देखता हूँ
मेरे हाथ में मेरी आत्मा नहीं एक पत्थर है
जिसमें चमकता है आत्मा का स्पर्श!

मैं पत्थर संभाले रखता हूँ
अपनी जेब में अपनी आत्मा के साथ
और हर बार बहुत ध्यान से
निकालता हूँ जेब से रेजगारी
मैं जानता हूँ जब तक खनकता रहता है
वह पत्थर रेजगारियों के साथ
मैं बचा ले जाऊंगा अपनी आत्मा
इस बाजार से बाहर
अपनी स्मृतियों की अकेली कोठरी में!

एक पत्थर जिसे मैं
रोज ठोकरें मार कर ले गया था
घर से स्कूल
रोज स्कूल के बाहर मेरा इंतजार करता था
और एक दिन उसी पत्थर से
मैंने जमीन पर लिखा
उस लड़की का नाम
जो लगातार तीन सप्ताह से स्कूल नहीं आ रही थी
बहुत उम्मीद से किसी ने उसका नाम ऊषा रखा होगा
एक दिन जब स्कूल के बाहर नहीं दिखा वह पत्थर
मुझे लगा जरूर उसे ऊषा ले गयी होगी
क्या उसकी आत्मा को भी चाहिए था एक पत्थर?

ऐसा अक्सर होता है
जब मैं छूता हूँ अपनी आत्मा
तो एक टीस होती है
क्या पत्थर के साथ रहते- रहते
लहूलुहान हो जाती है आत्मा
मैं उछाल देता हूँ अपनी आत्मा हवा में
और देखता हूँ उसे उड़ते चिड़ियों की तरह
स्वाधीन, उन्मुक्त, उल्लसित
और फिर आत्मा लौट आती है मेरे हाथों में
उसी पत्थर के साथ।

फिर मैं लौटता हूँ देह में
अपनी मुक्त आत्मा के साथ
खत लिखता हूँ
उस अनाम लड़की को
जिसे मैं ऊषा कह कर बुलाता हूँ
तो बची रहती है एक सुबह की उम्मीद!


मेरी आत्मा, पत्थर और ऊषा तुम  /  राकेश रोहित

3 comments:

  1. I like your poems because you write ism-free. The poems including this one are true quests for truth, aesthetics. This is a special poem - very personal but touching sensitivities of many of our age group.

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  2. क्या पत्थर के साथ रहते- रहते लहूलुहान हो जाती है आत्मा ....

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  3. बचपन की अल्हड़ता में ये गंभीरता और ये रहस्यवाद!

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