कविता
पहले हम हुए, फिर हुआ मौसम
- राकेश रोहित
सर्द रातों में
ठंडे पानी के स्पर्श लगता है
जैसे छू रहा हूँ हिमनद से आया बर्फीला जल
जो हजारों वर्ष पहले
बहकर आया होगा किसी नदी में
और फिर बहता ही रहा होगा.
ऐसी छूती है ठंडी हवा
जैसे दक्षिणी ध्रुव से बहकर आयी हवा
पहली बार छू रही होगी
किसी आदिम मानव को.
जैसे पिछली सर्दियों में
हड्डियों के बीच
बची रह गयी सिहरन जाग रही है
वैसे कांपता हूँ इन सर्दियों में.
ऐसे लहकती है आग
इस सर्द रात में
जैसे हमारे पूर्वजों के सांसों की
ऊष्मा भरी है उसमें.
ऐसे नहीं आया यह मिट्टी सना आलू
इसकी मिट्टी में अब भी
उनके पैरों की छाप है
जो ओस भरी सुबहों में
तलाश लाए थे इसे
हरे पत्तों की जड़ों के नीचे.
भुनता है आलू तो
याद उन्हीं की आती है
जो तलाश लाए होंगे
पहली बार
पत्थरों में छिपी आग.
सूरज से नहीं
वीराने में अंधड की तरह भटकती हवा से नहीं
पहाड़ों पर पिघल रहे ग्लेशियर से नहीं और
नियम की तरह अनवरत घूमती धरती से नहीं
हमसे रचा गया है यह मौसम.
पहले हम हुए,
फिर हुआ मौसम.
पहले हम हुए, फिर हुआ मौसम / राकेश रोहित |
बहुत सुन्दर कविता.....
ReplyDeleteऐसे नहीं आया यह मिट्टी सना आलू
ReplyDeleteइसकी मिट्टी में अब भी
उनके पैरों की छाप है
जो ओस भरी सुबहों में
तलाश लाए थे इसे
हरे पत्तों की जड़ों के नीचे.
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है आपकी। वर्तमान के बिम्बों का स्पर्श करती हुई पंक्तियाँ दूर अतीत की स्मृतियों तक हमें ले जाती है जहाँ से फूट निकलती है कविता किसी धार की तरह और फैल जाती है युगों के विस्तार में। बहुत बढि़या कविता के लिए बधाई।
आपको कविता पसंद आयी यह जानकर बहुत खुशी हुई. आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण और उत्साहवर्द्धक है. 'अतीत की स्मृति से युगों के विस्तार' की इस यात्रा में आप हमारे साथ हुए यह जानना मन को बहुत संतोष देता है. आपका हार्दिक आभार! - राकेश रोहित
ReplyDeleteहमसे रचा गया है यह मौसम.
ReplyDeleteपहले हम हुए,
फिर हुआ मौसम.....................बढि़या कविता के लिए बधाई।
भुनता है आलू तो
ReplyDeleteयाद उन्हीं की आती है
जो तलाश लाए होंगे
पहली बार
पत्थरों में छिपी आग
वाह बेहतरीन पंक्तियाँ हार्दिक शुभकामनाएं कविता के लिए
नियम की तरह अनवरत घूमती धरती से नहीं
ReplyDeleteहमसे रचा गया है यह मौसम.बहुत खूबसूरत रचना ,बधाई
Beautiful poem.
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