कविता
लौटने की जगह
- राकेश रोहित
जीवन के कुछ बारीक सत्य
जब लौटने की इच्छा बेधती है हृदय
कैसे हम अंधेरे में गुम हुई इच्छाएं हैं!
लौटने की जगह
- राकेश रोहित
जीवन के कुछ बारीक सत्य
हमारे अंदर ही छुपे
हुए हमारे दुख थे
जिन्हें हम धूप दिखाने
से डरते रहे
और प्रार्थना में
रूंधता रहा हमारा गला।
एक दिन सुंदर नृत्य
की समाप्ति पर
तालियाँ बजाते हुए हम रो पड़े
कैसे नचाती रही जिंदगी
और दर्शनातुर लोग
देखते रहे यह खेल!
जब लौटने की इच्छा बेधती है हृदय
नहीं बची है लौटने
की जगह
कितनी प्रार्थनाओं
में पृथ्वी
चाहा था मैंने तुम्हें
अपने पैरों के ठीक
नीचे
किसी पुरातन भरोसे
की तरह!
कैसे हम अंधेरे में गुम हुई इच्छाएं हैं!
और कैसे चाह का चँवर
डुलता है किसी के
सर पर?
कैसे इस अपरिमित जगत
में
जीवन पूछता है
मेरी जगह कहाँ है?
निराशा के कैनवस सा
टंगा हुआ है जो यह
दृश्य
मैं इसपर नित- रोज
निरंतर
टांकता हूँ शब्द का
फूल
और फिर उसे कविता
की तरह खिलते देखता हूँ।
हजार उदास रातों में
समेटता रहता हूँ
कविता में अपना बिखरना
हर सुबह उठकर उसे
मैं
आत्मा की तरह चूमता
हूँ
और हो जाता हूँ अनंग
घुलता हुआ इस जीवन
में।चित्र / के. रवीन्द्र |
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