Monday 1 June 2015

घास हरी नहीं है - राकेश रोहित

कविता
घास हरी नहीं है
- राकेश रोहित

घास हरी नहीं है
उसने कहा।
अगली बार उसने जोर दे कर कहा 
घास हरी नहीं है
वस्तुतः यह पीली हो चुकी है।

यह सिर्फ पर्यावरण का मसला नहीं है
यह हमारे सौन्दर्य बोध से भी जुड़ा है
कि हरी होनी चाहिए घास,
उसने फिर कहा
फिर- फिर कहा!

मैंने एक दिन उसे समझाना चाहा
हाँ पीली पड़ गयी है घास 
और पीले पड़ गये हैं फूल भी
इतनी गर्म है हवा 
कि कुम्हला गये हैं पत्ते 
यह बहुत कठिन दिन है 
उनके लिए जो छांव में नहीं हैं।
हाँ, उसने संयत स्वर में कहा इस बार- 
और यह भी देखिए कि घास भी हरी नहीं है!

हे भाई! 
मैंने उसका कंधा पकड़ झकझोरा 
यह घास हर बार 
आपकी दाढ़ी से तिनके की तरह क्यों अटक जाता है?
बस घास है कि आप हैं
हाँ हरी नहीं है घास
पर यह भी तो देखिए कि खतरे में है हरापन
कि तितलियों के घर उजड़ रहे हैं
कि ओस के अटकने की कोई ओट नहीं बची!
आप हर बार एक ही बात क्यों कहते हैं
कि घास हरी नहीं है?

इस बार मेरी चौंकने की बारी थी
वह फुसफुसा रहा था 
जैसे भय से भरा था,
मैं कहता हूँ कि घास हरी नहीं है
क्योंकि मैं कहना चाहता हूँ 
कि पानी नहीं रहा!
पर आपको क्या लगता है 
मैं जिस स्वर से घास के बारे में कह सकता हूँ
क्या उसी स्वर में सवाल कर सकता हूँ 
कि पानी नहीं रहा? 
कि क्यों पानी नहीं रहा?

आपको क्या लगता है?
क्यों यह घास हरी नहीं है?

चित्र / के. रवीन्द्र 

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